स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक लोकप्रिय नारा दिया था — अनुशासन ही देश को महान बनाता है।
अनुशासन व्यक्ति से आरंभ होता है और राष्ट्र का जीवन बन जाता है। व्यक्तिगत अनुशासन का अर्थ है व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप अपने को ढालना, अपने परिवार और समाज की दृष्टि में रखते हुए नियम बनाना और पालन करना।
अनुशासन व्यक्तिगत आवश्यकता, सामाजिक स्थिति, धार्मिक आचरण और प्रशासकीय नियमों के अनुरूप होता है। अनुशासन के साथ ही शिष्टाचार जुड़ा हुआ है।
इसकी शिक्षा किसी विद्यालय में नहीं दी जाती। प्राचीन भारत में नैतिक शिक्षा का अध्ययन होता था। समाज का प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को अनुशासन की शिक्षा देने में सक्षम और तत्पर था।
जन्म के बाद से अनुशासन की शिक्षा आवश्यकता और वय के अनुसार दी जाती थी। जब से पश्चिमी सभ्यता की लहर फैली है और उसकी सुगंध में प्रत्येक व्यक्ति बह गया है तब से अनुशासनहीनता अपने चरम रूप की ओर अग्रसर हुई है।
भारतीयों के बीच दो तरह के अनुशासन व्याप्त है – भारतीय अनुशासन और पश्चिमी अनुशासन। भारत की जिंदगी दोहरी जिंदगी हो गई है।
व्यक्तिगत नियम दोहरे हो गए हैं, सामाजिक व्यवस्था दोहरी हो गई है, प्रशासिकीय नियम कहने में एक भले हों पर दोहरे हो गए हैं।
हिंदुओं के साथ एक नियम चलता है, मुसलमानों के साथ दूसरा और ईसाइयों के संदर्भ में तीसरा। धार्मिक अनुशासन की तो बात ही निराली है। भारत का कोई धर्म ही नहीं है। यह धर्मनिरपेक्ष राज्य हो या न हो पर विधर्मी या अधर्मी अवश्य हो गया है।
इस तरह भाषात्मक एकता अथवा अनुशासन, धार्मिक अनुशासन या प्रशासकीय अनुशासन स्वमेव समाप्त हो गया है। इसका दोष व्यक्ति-विशेष पर डालना मूर्खता है।
विश्व के किसी देश में आज विभिन्न मतालम्बी है, फिर भी वहां का जीवन सुचारु रुप से चल रहा है। अनेक भाषाओं के बावजूद भारत की एक भाषा हो सकती है मगर देश में अनेक भाषाएं बोली जा रही है।
आज देश में पैसा और बाहुबल के बली लोग नियम कानून की धज्जियां उड़ाकर देश को अनुशासनहीनता की ओर ले जा रहे हैं। यह देश के लिए घातक है हमें इसे रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।
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