आज के इस HindustanTrend.Com के आर्टिकल में आप वर्ण का दूसरा प्रकार व्यंजन वर्ण के बारे में पढ़ सकते हैं।
हमने इस आर्टिकल से पहले वर्ण का पहला प्रकार स्वर वर्ण के बारे में पढ़ा था। जिसमें हमने स्वर वर्ण का परिभाषा और ढ़ेर सारे प्रकारों के बारे में पढ़ा था।
खैर इस आर्टिकल में आप व्यंजन वर्ण (Vyanjan Varn) की परिभाषा और इसके सभी प्रकारों के बारे में पढ़ सकते है।
व्यंजन वर्ण – Vyanjan Varn in Hindi Grammar
व्यंजन वर्ण (Vyanjan Varn)
परिभाषा – वे वर्ण जो सदैव स्वर की सहायता से बोले जाते हैं तथा जिनके उच्चारण में वायु फेंफड़ों से उठकर कण्ठ से होते हुए मुख विवर से बाहर निकलने के पूर्व मुख के किसी न किसी अंग को स्पर्श कर, उससे अवरुद्ध होकर, उससे टकराकर या घर्षण करती हुई बाहर निकलती है, उन्हें व्यंजन वर्ण कहते हैं।
संख्या –
हिन्दी में मूलतः व्यंजनों की संख्या तैंतीस हैं –
क | ख | ग | घ | ङ |
च | छ | ज | झ | ञ |
ट | ठ | ड | ढ | ण |
त | थ | द | ध | न |
प | फ | ब | भ | म |
य | र | ल | व | |
श | ष | स | ह |
विशेष – दो वर्ण ड़ तथा ढ़ क्रमश: ड तथा ढ से विकसित हुए हैं। इन्हें उत्क्षिप्त व्यंजन कहा जाता है। इनके योग पर व्यंजनों की संख्या पैंतीस (35) हो जाती है। तथा आगत दो (ज, फ़) के मेल से सैंतीस हो जाती हैं।
व्यंजन वर्ण के भेद या प्रकार –
हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से दो आधारों पर किया जाता है –
1 . उच्चारण स्थान के आधार पर
2 . प्रयत्न के आधार पर
1 . उच्चारण स्थान के आधार पर –
व्यंजनों के उच्चारण पर फेफड़ों से उठने वाली वायु मुख में किसी न किसी स्थान पर रुक कर, किसी न किसी अंग को स्पर्श कर बाहर निकलती है।
अतः वह अंग जिससे वायु अवरुद्ध होती है या वह स्थान जहाँ से किसी व्यंजन का उच्चारण होता है या उच्चारण पर ध्वनि अवयव मिलते हैं, के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है।
क्र.सं. | उच्चारण स्थान | व्याकरणिक नाम | व्यंजन |
1 . | कंठ | कण्ठ्य | क ख ग घ ङ (क वर्ग) |
2 . | तालु | तालव्य | च छ ज छ झ ञ (च वर्ग) य श |
3 . | मूर्धा | मूर्धन्य | ट ठ ड ढ ण (ट वर्ग) ड ढ़ र ष |
4 . | दन्त | दन्त्य | त थ द ध न (त वर्ग) ल स |
5 . | ओष्ठ | ओष्ठ्य | प फ ब भ म (प वर्ग) व |
6 . | काकल | काकल्य | ह |
7 . | वत्सर्र (मसूढ़ा) | वत्सर्य | न ल स र ज |
8 . | दन्त-ओष्ठ | दन्तोष्ठ्य | व फ़ |
9 . | नासिका | नासिक्य | ङ ञ ण न म |
1 . कण्ठ्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनका उच्चारण जिह्वा के पिछले भाग के नीचे कण्ठ से होता है, अर्थात् जिहवा का पिछला भाग कण्ठ को छूता है, उन्हें कण्ठ्य या कोमल तालव्य व्यंजन कहते हैं । क, ख, ग, घ, (ङ) कण्ठ्य व्यंजन हैं। इन्हें जिह्वामूलीय व्यंजन भी कहते हैं।
2 . तालव्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा का अग्रभाग अर्थात् जिह्वा की नोंक मसूड़ों के ऊपर तालु को स्पर्श करती है, उन्हें तालव्य व्यंजन या कठोर तालव्य व्यंजन कहते हैं । च, छ, ज, झ, (ञ), य, श तालव्य व्यंजन हैं।
3 . मूर्धन्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा उलट कर कठोर तालु के पिछले भाग मूर्धा का स्पर्श करती है, उन्हें मूर्धन्य व्यंजन कहते हैं। ट, ठ, ड, ढ (ण), ड, ढ, र, ष मूर्धन्य व्यंजन हैं।
4 . दन्त्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा का अग्रभाग अर्थात् जिह्वा नोंक ऊपर उठकर ऊपर की दन्त पंक्ति को स्पर्श करती है, दन्त्य व्यंजन कहलाते हैं। त, थ, द, ध (न), ल, स दन्त्य व्यंजन हैं।
5 . ओष्ठ्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनका उच्चारण दोनों ओष्ठों की सहायता से होता है, उन्हें ओष्ठ्य या द्वयोष्ठ्य व्यंजन कहते हैं। प, फ, ब, भ, (म) व ओष्ठ्य व्यंजन हैं।
6 . काकल्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनका उच्चारण कंठ के नीचे काकल की सहायता से होता है, उन्हें काकल्य या स्वरयंत्रमुखी व्यंजन कहते हैं। ‘ह’ काकल्य व्यंजन है।
7 . वत्सरय व्यंजन – मसूड़ों को वत्स्र्य कहते हैं। अत: वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा नोक ऊपरी मसूड़ों को स्पर्श करती है उन्हें वत्स्र्य व्यंजन कहते हैं। न, ल, स, र, ज़ वत्सर्य व्यंजन हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार न, र, ल, स संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश में दन्त्य ध्वनियाँ थीं। हिन्दी के आदिकाल में ये वर्त्य हो गयीं।
8 . दन्तोष्ठ्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनका उच्चारण ऊपर के दाँतों व नीचे के ओष्ठ की सहायता से होता है, उन्हें दन्तोष्ठ्य व्यंजन कहते हैं । ‘व’ तथा ‘फ’ दन्तोष्ठ्य व्यंजन हैं।
9 . नासिक्य व्यंजन – वे व्यंजन जिनका उच्चारण मूलवर्गीय उच्चारण स्थान के साथ नासिका से भी होता है अर्थात् वे व्यंजन जिनके उच्चारण में प्राणवायु मुख के अंग का स्पर्श कर मुख के साथ नाक से भी बाहर निकलती है, उन्हें नासिक्य व्यंजन कहते हैं।
इन्हें उच्चारण स्थान एवं नासिक्य के नाम से जाना जाता है, जैसे – कण्ठ-नासिक्य, ञ = तालव्य नासिक्य। हिन्दी में ‘ङ’ और ‘ज’ का प्रयोग अपने ही वर्ग के व्यंजन के पहले होता है; जैसे-गङ्गा, चञ्चल जबकि ‘ण’ ‘न”म’ का स्वतंत्र प्रयोग भी होता है, रण, प्राण, नयन, मकान।
2 . प्रयत्न के आधार पर –
ध्वनियों के उच्चारण में होने वाले यत्न को ‘प्रयत्न’ कहा जाता कहा है। यह प्रायः तीन प्रकार से होता है – (i) मुख अवयवों द्वारा श्वास को रोकने के रूप में (ii) स्वरतंत्री में कम्पन्न के रूप में तथा (iii) श्वास वायु की मात्रा के रूप में। इन्हीं आधारों पर व्यंजनों को तीन भागों में बाँटा जाता है –
(1 .) श्वास के अवरोध की प्रक्रिया के आधार पर
(2 .) श्वास वायु (प्राण) की मात्रा के आधार पर
(3 .) स्वरतंत्री में कम्पन्न के आधार पर
(1 .) श्वास के अवरोध की प्रक्रिया के आधार पर –
व्यंजनों के उच्चारण पर श्वास वायु मुख बिवर में किन अंगों से अवरुद्ध होती है; इस आधार पर व्यंजनों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है –
(अ) स्पर्श व्यंजन/स्पृष्ट व्यंजन/वर्गीय व्यंजन – जिन व्यंजनों के उच्चारण करते समय हमारे मुख अवयव (जीभ, होंठ, दाँत, वर्ल्स) परस्पर स्पर्श कर श्वास वायु को रोकते हैं, उन व्यंजनों को स्पर्श व्यंजन/स्पृष्ट व्यंजन/वर्गीय व्यंजन तथा स्फोटात्मक ध्वनियाँ कहते हैं। ‘क’ से ‘म’ तक के सभी पच्चीस व्यंजन (क, च, ट, त, प वर्ग के सभी व्यंजन) स्पर्श व्यंजन हैं।
(आ) स्पर्श संघर्षी/स्पृष्ट संघर्षी – स्पर्श व्यंजनों में से वे व्यंजन जिनके उच्चारण में श्वास वायु तालु से रुककर, स्पर्श के साथ घर्षण करती हुई रगड़ के साथ बाहर निकलती है, उन्हें स्पर्श संघर्षी या स्पृष्ट संघर्षी व्यंजन कहते हैं। ‘च’ वर्ग के व्यंजन-च, छ, ज, झ, ञ स्पर्श संघर्षी व्यंजन हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में च, छ, ज, झ स्पर्श व्यंजन ही थे, किन्तु आदिकालीन हिन्दी में आकर ये स्पर्श संघर्षी हो गये और तब से अब तक ये स्पर्श संघर्षी ही हैं।
(इ) उत्क्षिप्त व्यंजन/ताड़नजात/द्वि स्पृष्ट व्यंजन/द्विगुणव्यं – उत्क्षिप्त का अर्थ होता है फेंकना या फेंका हुआ है । अतः वें व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग वेग से ऊपर उठकर मूर्धा से टकराकर तुरन्त उसी वेग से नीचे लौट आता है, उन्हें उत्क्षिप्त व्यंजन के साथ ताड़नजात व्यंजन या द्विस्पृष्ट व्यंजन भी कहते हैं ।
‘ड’ तथा ‘ढ’ उत्क्षिप्त व्यंजन हैं। हिन्दी भाषा में इन वर्गों से कोई शब्द प्रारम्भ नहीं होता किन्तु इन वर्गों का प्रयोग किसी शब्द के बीच या अन्त में कहीं भी हो सकता है।
आचार्य शुक्ल के अनुसार ड, ढ़ व्यंजन अपभ्रंश में नहीं थे। आदिकाल में ही इनका विकास हुआ है। अतः ये हिन्दी में विकसित व्यंजन हैं।
(ई) अन्तःस्थ व्यंजन – वे वर्ण जिनके अन्दर स्वर छिपे होते हैं, उन्हें ‘अन्त:स्थ’ व्यंजन कहते है। अन्तःस्थं’ शब्द का अर्थ होता है बीच या मध्य में स्थित होना । अतः वे व्यंजन जिनके उच्चारण में श्वास का अवरोध बहुत कम होता है, प्रवाह भी संघर्षहीन होता है।
अर्थात् जिनका उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के उच्चारण के मध्य का होता है, अन्तःस्थ व्यंजन कहलाते हैं। य, र, ल, व अन्त:स्थ-व्यंजन हैं।
(i) अर्द्ध स्वर (ईषत् स्पृष्ट व्यंजन) – ‘य’ तथा ‘व’ को अर्द्ध स्वर कहा जाता है, क्योंकि इनके उच्चारण पर श्वास वायुःअवरोध रहित बाहर निकलती है तथा श्वास बाबुको सेकने हेतु उच्चारण अवयव प्रयत्न तो अवश्य करते हैं, लेकिन वह प्रयत्न नहीं के बराबर अल्प एवं क्षणिक होता है। अतः ये कुछ-कुछ स्वर से लगते हैं इसलिए इन्हें अर्द्ध स्वर, संघर्षहीन या ईषत् स्पृष्ट व्यंजन कहते हैं।
(ii) लुंठित या प्रकंपित व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा बेलन की तरह लपेट खाकर उपरि मसूड़ों को छू कर श्वास वायु में कम्पन्न पैदा कर लुढ़कती रहती है, उन्हें लुंठित या प्रकंपित व्यंजन कहते हैं। ‘र” लुंठित या प्रकंपित्त व्यंजन है।
(iii) पार्श्विक व्यंजन – ‘पार्श्विक’ शब्द का अर्थ होता है बगल का। अर्थात् वे व्यंजन जिनके उच्चारण में जिह्वा की नोंक ऊपरी मसूड़े में लगी रहने से श्वास वायु का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है किन्तु जिह्वा के दोनों पार्श्व खुले रहने के कारण श्वास वायु जिह्वा के दोनों पार्यों से होते हुए मुख से बाहर निकल जाती है, पार्श्विक व्यंजन कहलाते हैं। ‘ल’ पार्श्विक व्यंजन है।
(उ) संघर्षी या ऊष्म व्यंजन – वे व्यंजनं जिनके उच्चारण में मुख के अंगों के परस्पर निकट आने से वायुमार्ग संकीर्ण हो जाता है, फलतः श्वास वायु मुख अवयवों से रंगड़ करते हुए घर्षण के साथ बाहर निकलती है, उन्हें ‘संघर्षी ‘ व्यंजन कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन व्यंजनों के उच्चारण पर मुख विवर में श्वास वायु के घर्षण के कारण ऊष्मा उत्पन्न होती है, इसलिए इन्हें ‘ऊष्म’ व्यंजन भी कहते हैं। श, ष, स तथा ह संघर्षी या ऊष्म व्यंजन हैं।
विशेष – कतिपय विद्वान प्रयत्न के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण दो प्रकार से करते हैं –
1 . आभ्यन्तर प्रयत्न, 2. बाह्य प्रयत्न
1 . आभ्यन्तर प्रयत्न – उच्चारण के पूर्व जो भीतरी प्रयत्न किया जाता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। इन्हें चार भागों में बाँटा गया है – (i) स्पृष्ट (स्पर्श व्यंजन) (ii) विवृत (iii) ईषत् स्पृष्ट (अन्तःस्थ-य र ल व) (iv) ईषत्-विवृत-(श, ष, स, ह)
2 . बाह्य प्रयत्न –
(i) अल्पप्राण-महाप्राण
(ii) सघोष और अघोष
2 . श्वास वायु की मात्रा के आधार पर –
व्यंजनों के उच्चारण पर मुख से निकलने वाली प्राणवायु की मात्रा के आधार पर व्यंजनों को दो भागों में बाँटा जाता है – (क.) अल्पप्राण (ख.) महाप्राण।
(क) अल्पप्राण व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में श्वास “शक्ति, प्राणवायु का प्रयोग कम मात्रा में होता है। उन्हें अल्पप्राण ‘व्यंजन कहते हैं।
प्रत्येक वर्ग (क, च, ट, त, प वर्ग) का प्रथम, तृतीय एवं पंचम वर्ण (क, ग, ङ, च, ज, ञ, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म) तथा य, र, ल, व, ड़ व्यंजन अल्पप्राण व्यंजन हैं। सभी स्वर अल्पप्राण होते हैं।
(ख) महाप्राण व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में प्राणवायु (श्वास शक्ति) का प्रयोग अल्पप्राण व्यंजन के उच्चारण की अपेक्षा अधिक होता है। प्रत्येक वर्ग का (क, च, ट, त, प वर्ग) द्वितीय एवं चतुर्थ वर्ण (ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) तथा श, ष, स, ह, ढ़ वर्ण महाप्राण व्यंजन हैं।
विशेष –
(i) महाप्राण व्यंजन के उच्चारण पर अन्त में ‘ह’ कार जैसी ध्वनि विशेष रूप से रहती है।
(iii) अल्पप्राण व्यंजन ने, म, ल का उच्चारण शब्द में न्ह, म्ह, ल्हे की तरह हो तब न, म, ल वर्ण भी महाप्राण व्यंजन कहलाते हैं।
3 . स्वरतंत्री में कम्पन्न के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण –
मानव के गले में दो झिल्लियाँ होती हैं जो वायु के वेग से काँपकर बजने लगती हैं, इन झिल्लियों को स्वरतंत्री कहते हैं।
कुछ व्यंजनों के उच्चारण पर जब वायु गले में तंगमार्ग से निकलती है तो ये स्वरतंत्रियाँ झंकृत हो उठती हैं, उनमें कम्पन्न उत्पन्न होने लगता है। इसी कम्पन्न को नाद या घोष कहते हैं।
इसी कम्पन्न या घोष के आधार पर व्यंजनों को, दो भागों में बाँटा जाता है – (क) सघोष या घोष व्यंजन (ख) अघोष व्यंजन।
(क) सघोष या घोष व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में स्वर तंत्रियों के निकट आ जाने से उनके बीच से निकलने वाली वायु के कारण उनमें कम्पन्न या नाद उत्पन्न होता है, उन्हें घोष या सघोष व्यंजन कहते हैं।
प्रत्येक वर्ग (क, च, ट, त, प वर्ग) का तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम वर्ण (ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म) तथा य, र, ल, व, ह, ड, ढ़ वर्ण सघोष वर्ण हैं।
(ख) अघोष व्यंजन – वे व्यंजन जिनके उच्चारण में न तो स्वर-तंत्रियाँ निकट आती हैं और न ही उनमें किसी प्रकार का कम्पन्न उत्पन्न होता है, अघोष व्यंजन कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ग का (क, च, ट, त, प वर्ग) प्रथम एवं द्वितीय वर्ण (क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ) तथा श, ष, स, क, फ़ अघोष व्यंजन हैं।
करण – उन इन्द्रियों को करण कहा जाता है जो लगातार क्रियाशील होकर ध्वनियों के उच्चारण में सहायता पहुँचाती है। स्थान व करण में केवल स्थिरता व गतिशीलता का अन्तर होता है। नीचे का होंठ, जीभ, कोमलतालु तथा स्वरतंत्री को करण कहते हैं।