भारत का दूसरा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय पटना के दक्षिण पश्चिम में 40 मील की दूरी पर आधुनिक बड़गांव में नालंदा के नाम से प्रसिद्ध था। इसका विकास पांचवी सदी के मध्य में गुप्त राजाओं के दान से हुआ था।
शकादित्य ने संभवत एक बिहार की स्थापना करके नालंदा की नींव रखी। इस बिहार का बौद्ध मंदिर कई शताब्दियों तक प्रसिद्ध देवालय रहा। बाद में तथागत गुप्त, नरसिंह, बालादित्य ने एक-एक तथा वज्र राजा ने छठी शताब्दी में दो बिहार बनवाये।
छठी सदी में इस विद्यालय को मिहिर कुल और शशांक के हाथों काफी हानि उठानी पड़ी, लेकिन सातवीं शताब्दी तक इसकी कमी पूरी हो गई।
युआन चांग ने लिखा है कि नालंदा के सबसे ऊपर की मंजिलें बादलों से भी ऊँची थी और वहां पर बैठने वाला दर्शक यह देख सकता था कि बादल किस प्रकार अपने आकार बदलते हैं।
चीनी यात्री के वर्णन से ज्ञात होता है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 10,000 थी। इनीसिंग ने लिखा है 3000 से अधिक भिक्षु यहाँ रहते थे। इसके अवशेष और खुदाई से ज्ञात होता है कि भिक्षुओं के लिए एक और दो बिस्तर वाले कमरे थे।
सोने के लिए शिलायें, दीपक तथा पुस्तकों के लिए ताक होती थी। इस विश्वविद्यालय में धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमत, स्थिरमत, प्रभाकर मित्र, जिनमित्र, जिनचन्द्र, शीलभद्र आदि प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य थे जो समूचे बौद्ध साहित्य की व्याख्या कर सकते थे।
इसमें आठ बड़े कमरे और 300 छोटे कमरे थे। कोरिया, चीन, तिब्बत, जापान तथा मध्य एशिया से सैकड़ों छात्र विद्याभ्यास के लिए आते थे।
नालंदा का धर्मगंज नामक विशाल पुस्तकालय था, यह महायान बौद्ध धर्म का केंद्र होने के कारण, बौद्ध दर्शन इसका मुख्य विषय था।
इसके अतिरिक्त अन्य विषय भी यहाँ पढ़ाए जाते थे। 11 वीं सदी में पल्लव राजाओं का विक्रमशिला को प्रोत्साहन देने के कारण इसका मान और कार्य घटता गया।
12वी सदी में तुर्कों ने इसे समाप्त कर दिया। नालन्दा विश्वविद्यालय के गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए बिहार सर्कार प्रयत्नशील है।
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