मैंने अनेक उत्तम ग्रंथों का अध्ययन किया है। अतः मेरे लिए यह कहना कठिन है कि मैं कब और किस पुस्तक से कितना अधिक प्रभावित हुआ हूँ।
फिर भी यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरे मन पर यदि किसी एक पुस्तक का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है तो वह कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस है।
रामचरित मानस को सामान्य नर-नारी रामायण कहते हैं। मैं इस के पठन-पाठन की ओर सर्वप्रथम तब आकर्षित हुआ था। जब मेरी माता जो प्रतिदिन प्रातःकाल इसका पाठ करती थी तथा पाठ करने के अंत में हाथ जोड़कर पुस्तक पर अपना मस्तक झुकाती थी।
यधपि छोटा होने के कारण मैं इन सब बातों को भली भांति नहीं समझ पाता था किंतु मेरे मन में यह बात अवश्य समा गई थी कि यह ग्रंथ अमूल्य है।
फलतः मुझे जब कभी भी अवसर मिलता मैं उस स्थान पर पहुँच जाता, जहाँ यह पुस्तक रखी होती और मैं इसके पन्ने पलटने लगता।
माताजी ने जब मेरे इन क्रियाकलापों को देखा तो वह मुझे अपने पास बैठाकर रामायण की कहानियाँ सुनाने लगी तथा बड़ा होने पर मुझे प्रतिदिन इसका पाठ करने का उपदेश देने लगी।
माँ के उपदेश को सुनकर मैंने मन-ही-मन इस बात का निश्चय कर लिया कि जब मैं बड़ा होऊँगा तब प्रतिदिन इस पुस्तक का पाठ किया करूँगा।
मेरे इस निश्चय का परिणाम यह हुआ कि ज्यों-ज्यों मैं बड़ा होता गया त्यों-त्यों मेरी इच्छा इस पुस्तक को पढ़ने की ओर बढ़ती गई। आरम्भ में तो मेरी समझ में कुछ नहीं आता था, किंतु बारम्बार पढ़ने के बाद आज मेरे हृदय पटल पर इस पुस्तक की अनेक विशेषताएँ स्पष्टतः अंकित हो गई है।
रामचरितमानस की जिस विशेषता ने मुझे सर्वप्रथम अपनी और आकर्षित किया वह यह है कि हमें जीवन में कौन-कौन से कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
संतान का अपने माता-पिता के प्रति क्या कर्तव्य है, भाई का भाई के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए, मित्र का मित्र के प्रति क्या कर्तव्य है, पत्नी का पति के प्रति क्या कर्तव्य है, इन बातों का ज्ञान मुझे सर्वप्रथम रामचरितमानस के अध्ययन से ही प्राप्त हुआ।
राम जैसे आज्ञाकारी पुत्र, भरत जैसे निश्चल भाई, हनुमान जैसे सेवक, सीता जैसी पतिव्रता पत्नी के चरित्रों को पढ़कर मेरे मन में यह बारम्बार यह भाव उदित होने लगा कि हमें भी अपने जीवन में इन आदर्शों एवं महान व्यक्तियों के चरित्र का अनुसरण करना चाहिए।
रामचरितमानस के अध्ययन से मुझे आर्य धर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ। धर्म हमें परस्पर मिलना सिखाता है, अलग होना नहीं। यह स्वर रामचरितमानस में अनेक बार मुखरित हुआ।
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