स्वर वर्ण – Swar Varn Kise Kahate Hain in Hindi Grammar

आज के इस आर्टिकल में आप हिंदी व्याकरण के चैप्टर वर्ण का पहला प्रकार स्वर वर्ण (Swar Varn) के बारे में पढ़ सकते हैं।

स्वर को इंग्लिश में Vowels (वॉवेल्स) कहा जाता है। इस पोस्ट में आप स्वर वर्ण का परिभाषा, भेद या प्रकार और उदाहरण आदि के बारे में पढ़ सकते हैं।

स्वर वर्ण किसे कहते हैं। – Swar Varn in Hindi Grammar

स्वर (Vowels)

वे स्वतः उच्चरित पूर्ण ध्वनियाँ जो बिना किसी की सहायता से बोली जाती हैं तथा जिनके उच्चारण में वायु फेफड़ों से उठकर बिना किसी बाधा के मुख विवर से बाहर निकल जाती है ‘स्वर’ कहलाती है।

हिन्दी में स्वर ग्यारह होते हैं –

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ

हिन्दी में स्वरों का प्रयोग दो रूपों में होता है –

एक मूल रूप में (अ, आ, इ), दूसरा मात्रा रूप में व्यंजन के साथ (का, कि, की ……..)। व्यंजन के साथ स्वर जिस रूप में मिला होता है, उसे स्वर की मात्रा कहते हैं।

स्वरों की मात्राएँ-स्वरों के निश्चित चिह्नों को मात्रा कहते हैं। व्यंजन सदैव स्वर की सहायता से बोले जाते हैं तथा लिखने में हल् व्यंजन के साथ मूल रूप में (क् + आ = क्आ नहीं ‘का’ लिखा जाता है) न लिखकर स्वर के प्रतीक चिह्न मात्रा के साथ लिखा जाता है।

‘अ’ के अतिरिक्त प्रत्येक स्वर की एक निश्चित मात्रा होती है,

यथा –

मूल स्वर –
मात्रा रूप –*ि

विशेष –

1 . ‘अ’ स्वर की कोई मात्रा नहीं होती है, वह हिन्दी के प्रत्येक व्यंजन में अन्तर्निहित है। ‘अ’ रहित व्यंजन हल् (क) रूप में लिखे जाते हैं।

2 . हिन्दी में ‘ऋ’ का उच्चारण शुद्ध रूप में न होकर ‘रि’ की भाँति होने के कारण कतिपय विद्वान ‘ऋ’ को स्वर नहीं मानते हैं किन्तु यह सर्वमान्य नहीं है।

सभी अन्य स्वरों के समान ‘ऋ’ की मात्रा ( ृ ) भी होती है, अतः इसे स्वरों में गिना जाता है। ‘ऋ’ का प्रयोग केवल तत्सम शब्दों में होता है; जैसे-ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋद्धि, ऋषभा।

3 . आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार-“अपभ्रंश में केवल आठ स्वर थे – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ। ये आठों ही स्वर मूल स्वर थे। आदिकाल में दो नये स्वर ‘ऐ’, ‘औ’ विकसित हो गये जो संयुक्त स्वर थे तथा जिनका उच्चारण क्रमशः अऍ, अओं था।

4 . ‘र’ व्यंजन में ‘उ’ तथा ‘ऊ’ की मात्राएँ अन्य व्यंजनों की भाँति नीचे न लगाकर ‘र’ के मध्य में यथा र् + उ = ‘रु’ तथा र् + ऊ = ‘रू’ रूप में लगाई जाती है।

स्वर वर्ण के भेद या प्रकार –

हिन्दी स्वरों का वर्गीकरण विद्वानों ने निम्नलिखित आधारों पर किया है –

1 . उत्पति या श्रोत के आधार पर –

उत्पत्ति या स्रोत के आधार पर हिन्दी स्वरों को दो भागों में बाँटा गया है –

(क.) मूल स्वर (ख.) सन्धि स्वर

(क.) मूल स्वर – वे स्वर जो अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होते। अर्थात् उनकी उत्पत्ति किन्हीं दो स्वरों के मेल से नहीं हुई, मूल स्वर कहलाते हैं । हिन्दी में मूल स्वर चार हैं – अ, इ, उ, ऋ।

(ख.) सन्धि स्वर – दो स्वरों के मेल से बने स्वर सन्धि स्वर कहलाते हैं। हिन्दी में सन्धि स्वर सात हैं – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

सन्धि स्वरों को भी दो भागों में बाँटा गया है –

(A.) दीर्घ स्वर (B.) संयुक्त स्वर

(A.) दीर्घ स्वर – वे स्वर जो दो समान स्वरों, सवर्ण स्वरों या सजातीय स्वरों के मेल से बने हैं, दीर्घ स्वर कहलाते हैं। अ + अ के मेल से आ; इ + इ के मेल से ‘ई’; उ + उ के मेल से ‘ऊ’ अर्थात् आ , ई, ऊ स्वर दीर्घस्वर हैं।

(B.) संयुक्त स्वर – वे स्वर जिनकी उत्पत्ति दो भिन्न स्वरों के मेल से हुई, वे संयुक्त स्वर कहलाते हैं, यथा – अ + इ के मेल से ‘ए’, अ + उ के मेल से ‘ओ’, अ + ए के मेल से ‘ऐ’ तथा अ + ओ के मेल से औ’ स्वर बनते हैं। अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ स्वर संयुक्त स्वर हैं।

2 . कालमान (उच्चारण समय) या मात्रा के आधार पर –

किसी स्वर के उच्चारण में लगने वाले समय अर्थात् कालमान को ‘मात्रा’ कहते हैं। मात्रा के आधार पर स्वरों को तीन भागों में बाँटा गया है –

(क.) लघु स्वर (ख.) गुरु स्वर (ग.) प्लुत् स्वर

(क.) लघु स्वर (ह्रस्व स्वर/एक मात्रिक स्वर) – वे स्वर जिनके उच्चारण में सबसे कम समय लगता है, उन्हें लघु स्वर, ह्रस्व स्वर या एक मात्रिक स्वर कहते हैं – अ, इ, उ, ऋ, लघु या ह्रस्व स्वर हैं।

(ख.) गुरु स्वर (दीर्घ/द्विमात्रिक स्वर) – वे स्वर जिनके उच्चारण में लघु स्वर के उच्चारण से दुगुना समय लगता है, उन्हें गुरु स्वर, दीर्घ स्वर या द्विमात्रिक स्वर कहते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ तथा औ ये सात स्वर गुरु स्वर हैं।

(ग.) प्लुत् स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में लघु स्वर के उच्चारण से लगभग तिगुना समय लगता है, उन्हें प्लुत् स्वर कहते हैं।

वर्तमान में हिन्दी में प्रायः प्लुत् स्वर का प्रयोग नहीं होता है। संस्कृत के मन्त्रों में ‘ओ३म्’ शब्द में इसका प्रयोग देखा जा सकता है।

3 . जिहवा (के भाग) की सक्रियता के आधार पर (क्रियाशीलता) –

किसी स्वर के उच्चारण में जिह्वा के अग्र, मध्य या पश्च भाग में से कौन-सा भाग सक्रिय रहता है; इस आधार पर स्वरों को निम्न तीन भागों में बाँटा जाता है – (क.) अग्र स्वर (ख.) मध्य स्वर (ग.) पश्च स्वर।

(क.) अग्र स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में जिह्वा का अग्र, भाग सक्रिय रहता है, अर्थात् अग्रभाग इतना ऊपर उठ जाता है कि उससे ऊपर उठने पर स्वर का उच्चारण ही संभव नहीं होता, अग्र स्वर कहलाते हैं। इ, ई, ए, ऐ अग्र स्वर हैं।

(ख.) मध्य स्वर – वे स्वर, जिनके उच्चारण में जिह्वा का, मध्य भाग सक्रिय रहता है, मध्य स्वर कहलाते हैं । ‘अ’ मध्य स्वर है।

(ग.) पश्च स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग (पिछला भाग) सक्रिय रहता है, उन्हें पश्च स्वर कहते हैं। आ, उ, ऊ, ओ, औ पश्च स्वर हैं।

4 . मुखकृति एवं जिह्वा की स्थिति के आधार पर –

किसी स्वर के उच्चारण में मुख का कितना भाग खुला रहता है तथा जिह्वा कितनी ऊपर उठती है, इस आधार पर स्वरों को चार भागों में बाँटा गया है –

(क.) संवृत स्वर (ख.) अर्द्ध संवृत स्वर (ग.) अर्द्ध विवृत स्वर (घ.) विवृत स्वर

(क.) संवृत स्वर – ‘संवृत’ शब्द का अर्थ होता है संकरा या कम खुला। अत: वे स्वर जिनके उच्चारण में जिह्वा के ऊपर उठने से मुख विवर का मार्ग संकरा हो जाता है अर्थात् मुख बहुत कम खुला रहता है, उन्हें संवृत स्वर कहते हैं। इ, ई, उ, ऊ संवृत स्वर हैं।

(ख.) अर्द्ध संवृत स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में जिह्वा संवृत स्वरों की उच्चारण स्थिति की अपेक्षा कुछ कम ऊपर उठती है तथा मुख भी कुछ अधिक खुला रहता है, उन्हें अर्द्ध संवृत स्वर कहते हैं। ‘ए’ तथा ‘ओ’ अर्द्ध संवृत स्वर हैं।

(ग.) अर्द्ध विवृत स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में मुख विवृत-स्वरों की उच्चारण स्थिति की अपेक्षा कुछ कम खुला रहता है किन्तु जिह्वा कुछ ऊपर उठती है, अर्द्ध विवृत स्वर कहते हैं । अ, ऐ तथा औ स्वर अर्द्ध विवृत स्वर हैं।

(घ.) विवृत स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में जिह्वा प्रायः नीचे ही रहती है तथा मुख विवर पूरा खुला रहता है, उन्हें विवृत स्वर कहते हैं। ‘आ’ विवृत स्वर है।

5 . ओष्ठों की आकृति के आधार पर

स्वरों के उच्चारण में ओष्ठों की आकृति एवं स्थिति के आधार पर स्वरों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है –

(क.) वृत्तमुखी या वृत्ताकार स्वर (ख.) अवृत्तमुखी या अवृत्ताकार स्वर।

(क.) वृत्तमुखी या वृत्ताकार स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में ओष्ठों की आकृति वृत्ताकार या गोलाकार हो जाती है, उन्हें वृत्तमुखी, वृत्ताकार या वर्तुल स्वर कहते हैं। उ, ऊ, ओ, औ स्वर वृत्तमुखी स्वर हैं।

(ख.) अवृत्तमुखी या अवृत्ताकार स्वर – वे स्वर जिनके उच्चारण में ओष्ठों की आकृति वृत्ताकार या गोलाकार नहीं होती बल्कि ओष्ठ फैले ही रहते हैं, उन्हें अवृत्तमुखी या अवृत्ताकार स्वर कहते हैं। अ, आ, इ, ई, ए, ऐ अवृत्ताकार स्वर हैं।

6 . उच्चारण के स्थान के आधार पर –

स्वरों के उच्चारण पर फेफड़ों से उठी वायु मुख विवर में जिस उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है। इस आधार पर स्वरों को निम्न 6 भागों में विभक्त किया जाता है –

क्र.सं.उच्चारण स्थान व्याकरणिक नाम स्वर
1 . कंठ कण्ठ्य स्वरअ, आ
2 . तालु तालव्य स्वरइ, ई
3 . मूर्धामूर्धन्य स्वर
4 . ओष्ठओष्ठ्य स्वरउ, ऊ
5 . कंठ तालु कण्ठ-तालव्यए, ऐ
6 . कंठ ओष्ठकण्ठोष्ठ्यओ, औ

7 . अनुनासिक एवं अननुनासिक (निरनुनासिक) के आधार –

स्वरों के उच्चारण पर श्वास वायु मुख तथा मुख एवं नासिका द्वार से बाहर निकलती है, इस आधार पर स्वरों को दो भागों में बाँटा जाता है –

(क.) अनुनासिक स्वर (ख.) अननुनासिक स्वर

(क.) अनुनासिक स्वर – जब स्वरों के उच्चारण में कोमल तालु के झुके रहने से श्वास वायु मुख के साथ-साथ नासिका द्वार से भी बाहर निकलती है तो उन स्वरों को अनुनासिक स्वर कहते हैं।

लिखने में स्वर की अनुनासिकता प्रकट करने के लिए स्वर की शिरोरेखा पर चन्द्र बिन्दु (*) का प्रयोग किया जाता है । सभी स्वरों का अनुनासिक उच्चारण भी होता है।

यथा – अँ, आँ, इँ, ई, उँ, ऊँ, एँ, ऐ, ओं, औं।

विशेष – जिन स्वरों के ऊपर (शिरोरेखा पर) मात्रा लगी होती है, वहाँ चन्द्रबिन्दु के स्थान पर बिन्दु या अनुस्वार (ं) भी मान्य होता है।

(ख.) अननुनासिक या निरनुनासिक स्वर – सभी स्वरों के उच्चारण में प्राणवायु मुख से ही बाहर निकलती है, नाक से नहीं। फलतः सभी स्वर अननुनासिक या निरनुनासिक होते हैं।

8 . घोष के आधार पर –

कई वर्णों (स्वर और व्यंजन) के उच्चारण पर स्वर तंत्रियों में कम्पन उत्पन्न होता है। उत्पन्न कम्पन्न एवं नाद के आधार पर वर्णों को दो भागों में बाँटा जाता है –

(क.) संघोष वर्ण

(ख.) अघोष वर्ण,

(क.) सघोष वर्ण – वे स्वर या वर्ण जिनके उच्चारण पर स्वर तंत्रियों में कम्पन या नाद उत्पन्न होता है उन्हें सघोष वर्ण कहते हैं।

सभी स्वरों के उच्चारण पर स्वर तंत्रियों में नाद एवं कम्पन्न उत्पन्न होता है इसलिए सभी स्वर सघोष होते हैं।

(ख.) अघोष वर्ण – कोई भी स्वर अघोष नहीं होता।

9 . प्राण के आधार पर –

वर्णों के उच्चारण पर मुख विवर से निकलने वाली प्राणवायु (श्वास) की मात्रा के आधार पर वर्णों को दो भागों में बाँटा जाता है –

(क.) अल्पप्राण

(ख.) महाप्राण

(क.) अल्पप्राण – वे वर्ण जिनके उच्चारण पर प्राणवायु अल्प मात्रा में खर्च होती है, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं। हिन्दी के सभी स्वर अल्पप्राण होते हैं।

(ख.) महाप्राण – वे वर्ण जिनके उच्चारण में प्राणवायु को प्रयोग अल्पप्राण वर्ण के उच्चारण की अपेक्षा अधिक होता है, उसे महाप्राण वर्ण कहते हैं। हिन्दी का कोई भी स्वर महाप्राण नहीं होता।

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