Shabd Shakti Kise Kahate Hain in Hindi Grammar

परिभाषा : – वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं । कुछ शब्द एकार्थी होते हैं तो कुछ अनेकार्थी वहीं कुछ शब्दों का अर्थ प्रसंग व अर्थ के आधार पर बदल जाता है।

अतः “वाक्य में प्रयुक्त किसी शब्द के अर्थ का बोध प्रसंग या वाक्य में प्रयुक्त अन्य शब्दों के साथ सम्बन्ध से होता है इसीलिए शब्द व अर्थ के सम्बन्ध को शब्द-शक्ति कहते हैं।”

वैसे शब्द विहीन अर्थ तथा अर्थहीन शब्द की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः जिसके द्वारा किसी शब्द का प्रसंगानुसार वांछित अर्थ (अभिप्रेत अर्थ) का बोध होता है, उसे ही शब्द शक्ति कहते हैं।

शब्द शक्ति के भेद या प्रकार (Shabd Shakti Ke Bhed) –

अर्थ के आधार पर शब्दों को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जाता है। अतः शब्द, अर्थ एवं शब्द शक्ति के प्रकार का बोध मोटे रूप में निम्न तालिका से हो जाता है –

क्र.सं.शब्द का प्रकारअर्थशब्द शक्ति
1 .वाचक शब्दवाच्यार्थअभिधा शब्द शक्ति
2 .लक्षक शब्दलक्ष्यार्थलक्षणा शब्द शक्ति
3 .व्यंजक शब्दव्यंग्यार्थव्यंजना शब्द शक्ति

अतः अर्थ के आधार पर शब्द-शक्ति तीन प्रकार की होती है –

1 . अभिधा

2 . लक्षणा

3 . व्यंजना

1 . अभिधा शब्द शक्ति –

अनेकार्थ हूँ सबद में, एक अर्थ की भक्ति।

तिहि वाच्यारथ को कहै, सज्जन अभिधा शक्ति ॥

भिखारीदास

परिभाषा – गद्य या पद्य में प्रयुक्त किसी शब्द के मुख्यार्थ, वाच्यार्थ, संकेतित अर्थ, सरलार्थ, लोक प्रचलित अर्थ, शब्दकोशीय अर्थ, नामवाची अर्थ या अभिधेय अर्थ का बोध कराने वाली शब्द-शक्ति को अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं।

शब्द चाहे रूढ़, यौगिक या योगरूढ़ हो, उसके सम्मुख आते ही जब उसका मुख्यार्थ स्पष्ट हो जाता है, वहाँ अभिधा शब्द-शक्ति होती है।

1 . गाय दूध देती है।

2 . शेर जंगल में रहता है।

जहाँ तक अनेकार्थक शब्दों का सम्बन्ध है, उनका अभिप्रेत अर्थ वाक्य या काव्य में प्रयुक्त शब्दों के संयोग, साहचर्य, सान्निध्य, निकटता, वार्तालाप, प्रसंग, स्थान या समय के अनुसार समझा जाता है।

जैसे –

‘मोती’ शब्द अनेकार्थी है जिसका अर्थ वाच्यार्थ संयोग, सान्निध्य और प्रसंग के अनुसार लिया गया है, यथा –

1 . मोती एक नटखट लड़का है। (व्यक्ति विशेष)

2 . उसके हार के मोती कीमती है। (वस्तु विशेष)

3 . राजू ने एक मोती पाल रखा है। (जानवर विशेष/कुत्ता)

अन्य उदाहरण –

1 . राम राजा दशरथ के पुत्र थे। (दशरथ पुत्र राम)

2 . कृष्ण-राम ने कंस का वध किया। (बलराम)

3 . धनुष भंग पर राम-लक्ष्मण में संवाद हुआ। (परशुराम)

काव्य में प्रयुक्त यमक अलंकार में एक शब्द की पुनरावृत्ति होती है तथा दूसरी बार उसी शब्द का अर्थ भिन्न होता है, जो वाच्यार्थ से ही लिया जाता है, जैसे –

कनक1 कनक2 ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

1 . कनक = सोना

2 . कनक = धतूरा

सुन्यौ कहुँ तरु अरक’ ते, अरक समानु उदोत।

1 . अरक = आक (पेड़)

2 . अरक = सूर्य

2 . लक्षणा शब्द शक्ति –

मुख्यार्थ बाधेतद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् ।

अन्योर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया।।

आचार्य मम्मट

‘काव्य प्रकाश’ के रचयिता आचार्य मम्मट के अनुसार “मुख्यार्थ में बाधा होने पर रूढ़ि या प्रयोजन के आधार पर अभिधेयार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ को व्यक्त करने वाली शक्ति लक्षणा शब्द शक्ति कहलाती है।’

अतः हम कह सकते हैं कि जब किसी शब्द के मुख्यार्थ में बाधा हो, तब किसी रूढ़ि या परम्परा तथा प्रयोजन के आधार पर मुख्यार्थ से सम्बन्ध रखने वाला अन्य अर्थ अर्थात् आरोपित अर्थ या लक्ष्यार्थ से अभिप्रेत अर्थ का बोध होता है, वहाँ लक्षणा शब्द-शक्ति होती है।

अतः लक्षणा शब्द-शक्ति में निम्न तीन बातें आवश्यक होती हैं –

1 . शब्द के मुख्यार्थ में बाधा पड़ना।

2 . शब्द के मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ लेना।

3 . अन्य अर्थ या लक्ष्यार्थ ग्रहण करने का आधार कोई रूढ़ि, परम्परा या विशेष प्रयोजन है।

लक्षणा शब्द शक्ति के प्रकार –

लक्षणा शब्द शक्ति दो प्रकार की होती है –

1 . रूंढ़ा लक्षणा

2. प्रयोजनवती लक्षणा

इनके भेदोपभेद निम्नानुसार हैं –

(1) रूढ़ा लक्षणा –

जब किसी काव्य (गद्य-पद्य) में प्रयुक्त शब्द के मुख्यार्थ के बाधित होने पर, किसी काव्यरूढ़ि या परम्परा को आधार बनाकर मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ अर्थात् लक्ष्यार्थ से अभिप्रेत अर्थ का बोध होता है, वहाँ रूढ़ा लक्षणा शब्द शक्ति होती है।

मुहावरे तथा लोकोक्ति का वाक्य में वाच्यार्थ न होकर लक्ष्यार्थ ही ग्रहण किया जाता है, अतः वहाँ सदैव रूढ़ा लक्षणा शब्द शक्ति होती है, जैसे –

1 . बाजार में लाठियाँ चल गई।

2 . वह घोड़ा तो हवा से बातें करता है।

3 . बिहार जाग उठा।

4 . धोबी का कुत्ता घर का न घाट का ।

पद्य में-फूले फूले हम फिरें, होत हमारो ब्याह ।

तुलसी गाय बजाइकै, देत काठ में पाय ॥

चट्टानों की छाती से दूध निकालो।

मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।

(2) प्रयोजनवती लक्षणा –

जब किसी शब्द के मुख्यार्थ के बाधित होने पर किसी विशेष प्रयोजन से प्रेरित होकर मुख्यार्थ से सम्बन्धित लक्ष्यार्थ द्वारा जो अन्य अर्थ लिया जाता है, तब वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा शब्द शक्ति होती है, जैसे –

लाला लाजपतराय पंजाब के शेर थे।

इस बुढ़िया को मत सताओ, यह तो निरी गाय है।

धर्मेन्द्र ने कहा कि मेरा नौकर तो गधा है।

लाल पगड़ी आ रही है।

दिल्ली यमुना पर बसी है।

प्रयोजनवती लक्षणा के दो भेद हैं –

(i) गौणी प्रयोजनवती लक्षणा (ii) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा

(i) गौणी प्रयोजनवती लक्षणा –

जब किसी शब्द का लक्ष्यार्थ सादृश्य या समान गुण धर्म द्वारा प्रकट होता है, वहाँ गौणी प्रयोजनवती लक्षणा शब्द शक्ति होती है, जैसे –

1 . वह पुरुष सिंह है।

2 . अब सिंह अखाड़े में उतरा।

गौणी प्रयोजनवती लक्षणा दो प्रकार की होती है –

(अ) सारोपा गौणी प्रयोजनवती लक्षणा

(आ) साध्यावसाना गौणी प्रयोजनवती लक्षणा

(अ) सारोपा गौणी प्रयोजनवती लक्षणा –

जिस गौणी प्रयोजनवती लक्षणा में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों का कथन हो अर्थात्ज हाँ उपमेय तथा उपमान दोनों का प्रावधान हो तथा उपमेय में उपमान का आरोप कर दोनों को एक रूप बना दिया जाता है यानि रूपक अलंकार होता है, वहाँ सदैव सारोपा गौणी प्रयोजनवती लक्षणा शब्द शक्ति होती है। जैसे –

पुरुषसिंह दोउवीर, हरषि चले मुनि भय हरन

उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बाल पतंग।

विकसे सैत सरोज सब, हरषे लोचन-भुंग ॥

(आ) साध्यावसाना गौणी प्रयोजनवती लक्षणा –

जिस गौणी प्रयोजनवती लक्षणा में उपमेय का कथन न होकर केवल उपमान का ही कथन होता है, वहाँ साध्यावसाना गौणी प्रयोजनवती लक्षणा शब्द-शक्ति होती है। जैसे –

अब सिंह अखाड़े में उतरा। (यहाँ ‘सिंह’ उपमान का ही उल्लेख है, उपमेय पहलवान का नहीं।)

बाँधा था विधु को किसने ? (यहाँ उपमेय विधु का उल्लेख है उपमान मुख का नहीं।)

(ii) शुद्ध प्रयोजनवती लक्षणा –

शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा में गुण सादृश्य की अपेक्षा अन्य सम्बन्ध से लक्ष्यार्थ का बोध होता है, जैसे – उसका घर पानी में है। वाक्य में लक्ष्यार्थ का बोध पानी और घर के सादृश्य के कारण न होकर पानी और घर के नैकट्य के कारण होने से लक्ष्यार्थ होगा, घर पानी के किनारे है।

वह गंगावासी हैं। वाक्य में भी गंगावासी का अर्थ गंगा में वास करने वाला न होकर गंगा के किनारे रहने वाला से है।

शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा दो प्रकार की होती है –

(इ) लक्षण (जहत् स्वार्था) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा

(ई) उपादान (अजहत् स्वार्था) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा

(इ) लक्षण ( जहत् स्वार्था ) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा –

जिस लक्षणा में लक्ष्यार्थ के साथ वाच्यार्थ का कुछ भी लगाव नहीं होता अर्थात् इसमें वाच्यार्थ पूर्णतः छूआ रहता है। जैसे –

अध्यापक जी ने कहा – मोहन तो गधा है। यहाँ ‘गधा’ शब्द का वाच्यार्थ चार पैर का जानवर न होकर लक्ष्यार्थ ‘निरामूर्ख’ से है।

कच समेट कर भुज उलटि, खस सीस पर डारि
काको मनु बाँधे न यह, जूरो बाँधन हारि ॥

यहाँ मन बाँधने का वाच्यार्थ न लेकर लक्ष्यार्थ मोहित करने (आसक्त करने) से लिया गया है।

(ई) उपादान ( अजहत् स्वार्था ) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा –

जिस लक्षणा में शब्द के लक्ष्यार्थ के साथ उसका वाच्यार्थ भी अंग रूप में लगा रहता है, वहाँ उपादान (अजहत स्वार्था) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा होती है।

‘चक्रसुदर्शन करत सदा जन की रखवारी’

यहाँ ‘चक्रसुदर्शन’ का अर्थ विष्णु लेने में वाच्यार्थ ही लक्ष्यार्थ का आधार रहा है।

‘लाल पगड़ी के आते ही भीड़ छंट गई’ में लाल पगड़ी धारण करने वाला अर्थात् ‘पुलिस’ अर्थ लेने में भी वाच्यार्थ ही अंग रूप में है।

3 . व्यंजना शब्द-शक्ति –

जब गद्य या पद्य में प्रयुक्त शब्द का अभिप्रेत अर्थ का बोध न तो वाच्यार्थ से और न ही लक्ष्यार्थ से; अपितु काव्य में प्रयुक्त कथन के संदर्भ में अलग-अलग अर्थ से या व्यंग्यार्थ से होता है, वहाँ व्यंजना शब्द शक्ति होती है। इस व्यंग्यार्थ को प्रतीयमानार्थ, अन्यार्थ तथा ध्वन्यर्थ भी कहते हैं।

बातें करती हुई गृहिणी ने कहा, “अरे! संध्या हो गई।”

रजनीगंधा खिल गई है।

प्रधानाचार्य ने कहा, ‘साढ़े चार बज गये।’

गंगाजी में अहीरों की बस्ती है।

‘पानी गये न उबरे मोती, मानस, चून’

बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाइ ।

सौंह करे भौहिन हँसे, देन कहे नटि जाइ ।

सीय हरण की तात जनि, कहियो पितु सन जाय ।

जो में राम तो कुल सहित, कहहिं दसानन आय ॥

व्यंजना शब्द शक्ति के प्रकार –

व्यंजना शब्द शक्ति दो प्रकार की होती है –

1 . शाब्दी व्यंजना

2 . आर्थी व्यंजना

इनके भेदोपेभेद निम्नानुसार हैं –

(1) शाब्दी व्यंजना –

जिस व्यंजना में व्यंग्यार्थ जब किसी शब्द विशेष के प्रयोग पर ही निर्भर रहता है, वहाँ शाब्दी व्यंजना शब्द शक्ति होती है। श्लेष अलंकार में शाब्दी व्यंजना ही होती है।

‘पानी गये न उबरे, मोती, मानस, चून’

गंगाजी में अहीरों की बस्ती है।

इसके दो भेद हैं –

(i) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना –

जब काव्य में प्रयुक्त शब्द के व्यंग्यार्थ की प्रतीति अनेकार्थी शब्द के संयोग, वियोग, साहचर्य, सामर्थ्य, औचित्य, देशकाल, व्यक्ति, स्वर आदि से होती है –

चिरजीवो जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।

को घटि यह वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ।।

पानी गये न उबरे, मोती, मानस, चून।

(ii) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना –

जिस व्यंजना में व्यंग्यार्थ के लिए लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसे लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं,

जैसे –

गंगाजी में अहीरों की बस्ती है।

यदि इस वाक्य का साध्यवसाना शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा द्वारा ‘गंगा के किनारे अहीरों की बस्ती है’ अर्थ होगा किन्तु लक्षणा द्वारा व्यंगार्थ का अर्थ होगा पवित्र या निर्मल वातावरण के बीच स्थित बस्ती।

(2) आर्थी व्यंजना –

जब वाक्य या काव्य में व्यंग्यार्थ किसी शब्द विशेष पर आधारित न होकर उस शब्द के अर्थ द्वारा ध्वनित होता है। अर्थात् शब्द का पर्याय रखने पर भी व्यंग्यार्थ बना रहता वहाँ आर्थी व्यंजना शब्द शक्ति होती है, जैसे –

पुजारी ने कहा, ‘अरे! संध्या हो गयी।

कैसा सरोवर भरा है कि लोग लोट-लोट कर नहा रहे हैं।

आर्थी व्यंजना के दो उपभेद होते हैं –

(i) अभिधामूला आर्थी व्यंजना –

जिस आर्थी व्यंजना में वाच्यार्थ से ही व्यंग्यार्थ का बोध होता है –

कौन को सुत ? बालिको, वह कौन बलि ? न जानिए ?

कौख चापि तुम्हें जो सागर सात न्यांत बखानिए ।

है कहाँ वह ? वीर अंगद देव-देवलोक बताइयो।

क्यों गया ? रघुनाथ बान बिमान बैठि सिधाइयो॥

(यहाँ रावण अंगद संवाद में वाच्यार्थ द्वारा ही राम की शक्ति के आधिक्य को व्यंजित किया गया है।)

(ii) लक्षणामूला आर्थी व्यंजना –

जिस आर्थी व्यंजना में लक्ष्यार्थ के द्वारा व्यंग्यार्थ का बोध होता है, वहाँ लक्षणामूला आर्थी व्यंजना शब्द शक्ति होती है।

वह मनुष्य नहीं बैल है (यहाँ मनुष्य की मूर्खता के आधिक्य पर बल लक्ष्यार्थ द्वारा व्यंग्यार्थ से दिया गया है।)

कैसा भरा सरोवर है कि लोग लोट-लोट कर नहा रहे हैं।

यहाँ यह व्यंग्यार्थ व्यंजित होता है कि सरोवर छिछला है।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

तो क्या पथ बाधा ही पाते ?

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।

सौह करे भौंहिन हँसे, देन कहे नटि जाइ ॥

हिंदी व्याकरण :-

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