जीवन में सिनेमा का महत्व
चलचित्र आज हमारे जीवन का अंग बन गया है। समाज में जो कुछ हुआ करता है उसका पहले नाटकों द्वारा अभिनय किया जाता था। अब चलचित्र के द्वारा ही किया जाता है।
समाज की चलती फिरती तस्वीरें यदि हमें देखनी हो तो हम सिनेमा घर जाएं। अब तो शहरों में अनेक सिनेमा-गृह बन गए हैं। संध्याकाल होते ही उनके सामने भीड़ लग जाती है।
घरेलू धंधों और जंजालों से ऊबकर नगर निवासी सिनेमा गृह में दिल बहलाव के लिए आते हैं। फिल्म-कंपनियां देश अथवा संसार के प्रसिद्ध अभिनेता तथा अभिनेत्रियों द्वारा किसी नाटक का अभिनय कराती है और फिर उसे बेच देती है।
सिनेमा यंत्र द्वारा नाटक के सभी पात्र और उनका अभिनय छायापट पर हम देख सकते हैं। बिजली द्वारा मशीन चलाई जाती है और दर्शकों के सामने दीवाल की चादर पर चलचित्र क्रम से आ जाते हैं।
सिनेमा यदि समाजोपयोगी हो तो मनोरंजन के साथ समाज हित भी हो सकता है। परंपरागत रूढ़ियों को छिन्न-भिन्न करके उसे प्रगतिशील बनाया जा सकता है।
रेडियो की भांति लोकशिक्षण का यह अच्छा साधन है। मौन सिनेमा से गांवों में प्रचार कार्य किया जा सकता है। स्वच्छ्ता, राजनीति, धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक क्रांति आदि की शिक्षा सिनेमा द्वारा दी जा सकती है।
सिनेमा में नाटक की भांति समाज का चित्र दिखाया जाता है। समाज की रूचि का ध्यान रखते हुए फिल्म कंपनियां, फिल्मों की रचना करती है। सामयिक राजनीति से संबंध रखने वाले फिल्मों को देखने के लिए सिनेमा घरों में दर्शकों की भीड़ लग जाती है।
परंतु सिनेमा के विदूषकों द्वारा हास्य की जो सामग्री जुटाई जाती है तब प्रेमी प्रेमिकाओं का भद्दा प्रदर्शन कराया जाता है, वह अत्यंत अवांछनीय है।
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