अलंकार : परिभाषा, प्रकार एवं उदाहरण – Alankar in Hindi Grammar

अलंकार किसे कहते हैं। परिभाषा, भेद एवं उदाहरण

अर्थ एवं परिभाषा : – अलंकार शब्द ‘अलम्’ और ‘कार’ दो शब्दों के योग से बना है। अलम्’ का अर्थ होता है ‘शोभा’ और ‘कार’ का अर्थ होता है करने वाला’। अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले, काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले कारकों को ” अलंकार ” कहते हैं।

आचार्य भमह के अनुसार “शब्द और अर्थ का वैचित्र्य ही अलंकार है।” तथा आचार्य दण्डी के अनुसार “काव्य का शोभाकारक धर्म ही अलंकार है।” आचार्य वामन ने अलंकार को सौन्दर्य का पर्याय माना है।

आचार्य मम्मट के मतानुसार, “अलंकार कनक कुंडल आदि आभूषणों के समान हैं।” वे कदाचित रस के उपकारक हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जो अलंकृत करे वह अलंकार है।

महत्त्व (Alankar Ke Mahtav) –

आचार्य जयदेव अनलंकृत काव्य को काव्य नहीं मानते। उनकी मान्यता है कि अलंकारों के बिना काव्य की स्थिति मानना अग्नि को उष्ण न कहना है।

अर्थात् काव्य में अलंकार उसी प्रकार अनिवार्य है जैसे आग में उष्णता। आचार्य केशव ने काव्य में अलंकारों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा कि –

जदपि सुजाति, सलच्छनी, सुबरन सरस, सुवृत्त ।

भूषण बिनु न बिराज ही, कविता, बनिता मित्त ॥

वास्तव में अलंकारों से काव्य रुचिप्रद एवं पठनीय बनता है। कविता की अभिव्यक्ति स्पष्ट एवं प्रभावोत्पादक बन जाती है।

अलंकार के प्रकार (Alankar Kitne Prakar Ke Hote Hain) –

अलंकार के तीन मुख्य प्रकार हैं –

1 . शब्दालंकार

2 . अर्थालंकार

3 . उभयालंकार

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1 . शब्दालंकार (Shabdalankar) –

परिभाषा : – वे अलंकार जो केवल शब्दों द्वारा ही काव्य की शोभा बढ़ाते हैं अर्थात् जहाँ शब्दों में चमत्कार पाया जाता है, उन्हें शब्दालंकार कहते हैं।

अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्तवदाभास, पुनरुक्ति प्रकाश (वीप्सा), वक्रोक्ति आदि प्रमुख शब्दालंकार है।

(1) अनुप्रास (Anupras) –

परिभाषा – काव्य में जहाँ एक ही वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की रसानुकूल आवृत्ति एक से अधिक बार होती है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति में प्रथम वर्ण में समान स्वर का होना जरूरी नहीं है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है, जैसे –

भगवान भक्तों की भयंकर, भूरि भीति भगाइये।

तरनि-तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

अनुप्रास के मुख्यतः निम्न भेद हैं –

(i) छेकानुप्रास – जहाँ एक वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की आवृत्ति केवल एक ही बार होती है –

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि।

कहत लखन सन राम हृदय गुनि ॥

(ii) वृत्यनुप्रास – काव्य में जब एक ही वर्ण से आरम्भ होने वाले शब्दों की आवृत्ति एक से अधिक बार होती है, जैसे –

कोकिल, केकी, कीर, पूजते हैं कानन में।

सिसिर में ससि को सरूप पावै सविताऊ।

(iii) श्रुत्यनुप्रास – काव्य में जब एक ही उच्चारण स्थान से बोले जाने वाले वर्षों से आरम्भ होने वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, जैसे –

तुलसीदास सीदत निस दिन देखत तुम्हारी निठुराई

दन्त्यध्वनियों (त, द, न, स) से प्रारम्भ होने वाले शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

(iv.) अन्त्यानुप्रास – काव्य में प्रयुक्त जब प्रत्येक चरण के अन्त में या चरण के प्रत्येक पद (शब्द) के अन्त में समान व्यंजन या समान स्वर युक्त व्यंजन की आवृत्ति होती है, जैसे –

सेस, महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावै।

(v) लाटानुप्रास – काव्य में जब किसी शब्द तथा उसके अर्थ की समान रूप से आवृत्ति हो किन्तु अन्वय करने पर उनके अभिप्राय में भिन्नता हो जाती है, वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है, जैसे –

पूत कपूत तो क्यों धन संचौ पूत सपूत तो क्यों धन संचै॥

(2) यमक (Yamak) –

भिन्न अरथ फिरि फिरि जहाँ, वेई अच्छर बंद।

आवत हैं सो यमक करि, बरनत बुद्धि बलंद ॥

‘शिवराज-भूषण’

एक शब्द पुनि पुनि परे, अर्थ और को और

काव्य में जब किसी शब्द की आवृत्ति एक से अधिक बार हो तथा प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।

कभी-कभी पूरा शब्द दुबारा न आकर उस शब्द का कुछ अंश दुबारा आता है, वहाँ भी यमक अलंकार होता है। इस आधार पर यमक के दो भेद होते हैं –

(i) अभंग यमक – काव्य में जहाँ शब्द की आवृत्ति ज्यों के त्यों हो तथा अर्थ भिन्न-भिन्न हो –

सारंग’ ले सारंग’ चली, सारंग पूगो आय।

सारंग’ ले सारंग धर्यो, सारंग सारंग माय॥

1 . घड़ा 2 . सुन्दरी 3 . बादल 4 . वस्त्र 5 . घड़ा 6 . सुन्दरी 7 . सरोवर

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयेउ विदेह1 विदेह2 विसेखी।

1 . राजा जनक 2 . देहरहित

(ii) सभंग यमक – काव्य में जब शब्द की आवृत्ति ज्यों के त्यों न होकर कुछ दूसरे शब्द का अंश मात्र होता, वह भी श्रवण सुखद कुतुहल उत्पन्न करता है, वहाँ सभंग यमक अलंकार होता है –

आयो सखि! सावन’ विरह सर सावन

लग्यौ है बरसावन सलिल चहुँ ओर ते

तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।

तू मोहन के उरबसी, वै उरबसी समान॥

(3) श्लेष अलंकार (Shlesh Alankar) –

‘श्लेष अलंकृति अर्थ बहु एक शब्द में होता’

‘भाषा-भूषण’

‘श्लेष’ शब्द का अर्थ होता है, चिपका हुआ। अर्थात् काव्य में प्रयुक्त जब किसी शब्द के प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ होते हैं, तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है।

श्लेष अलंकार मुख्यतः दो प्रकार का होता है –

(i) शब्द श्लेष – काव्य में जब अलंकार का सौन्दर्य शब्द विशेष पर ही आधारित होता है। अतः उस शब्द के स्थान पर उसका कोई दूसरा पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त कर दिया जाये तो फिर वहाँ श्लेष अलंकार नहीं रहता।

शब्द श्लेष दो प्रकार का होता है –

(अ) अभंग श्लेष – जब काव्य में प्रयुक्त शब्द विशेष को तोड़े बिना प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थों का बोध होता है, जैसे –

चरण धरत चिन्ता करत, नींद न भावत सोर।

सुबरन को ढूँढ़त फिरै, कवि, कामी और चोर ॥

यहाँ ‘सुबरन’ शब्द के कवि, कामी और चोर के संदर्भ में क्रमशः सुवर्ण, सुन्दर तथा स्वर्ण (सोना) अलग-अलग अर्थ का बोध होता है।

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।

बारे उजियारौ करै, बदै अंधेरो होय ॥

यहाँ ‘बारे’ तथा ‘बढे’ शब्दों में श्लेष है।

(आ) सभंग श्लेष – काव्य में जब शब्द विशेष को तोड़ने अर्थात् भंग करने पर ही अन्य अर्थ निकलता है वहाँ सभंग श्लेष होता है –

चिर जीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।

को घटि यह वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ॥

यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर के बीर’ में सभंग श्लेष है।

वृषभानुजा = राधा, वृषभ + अनुजा – बैल की अनुजा = गाय

हलधर के बीर = बलराम के भाई = कृष्ण, हलधर के बीर = बैल

(ii) अर्थ श्लेष – जब श्लेष में काव्य का सौन्दर्य शब्द विशेष का पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त करने पर बना रहता है, वहाँ अर्थ श्लेष अलंकार होता है –

साधुचरित सुभ सरिस कपासू।

निरस विसद गुनमय फल जासू॥

यहाँ ‘निरस’, ‘विसद’ तथा ‘गुनमय’ तीनों शब्द ‘साधु’ तथा कपास’ दोनों ही प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देते हैं।

(4) पुनरुक्ति प्रकाश (वीप्सा) (Punrukti Parkash Alankar) –

काव्य में जब किसी शब्द की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो किन्तु उनके अर्थ तथा अन्वय (क्रमबद्धता) में कोई अन्तर नहीं आता वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है।

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।

ठौर-ठौर बिहार करती, सुन्दरी नर नारियाँ।

(5) पुनरुक्तवदाभास (Punrktavdabhas) –

काव्य में जब वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति नहीं होती किन्तु पढ़ने पर पुनरुक्ति का बोध होता है, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।

‘पुनि फिरि राम निकट सो आई।

यहाँ पुनि’ तथा ‘फिरि’ शब्द समानार्थी प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तव में ‘पुनि’ का अर्थ फिर तथा ‘फिरि’ का अर्थ ‘लौटकर’ है।

(6) वक्रोक्ति (Vakroti) –

काव्य में जब किसी वक्ता द्वारा एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का श्रोता द्वारा जानबूझ कर वकता के अभिप्रेत अर्थ से भिन्न कोई दूसरा चमत्कार पूर्ण अर्थ कल्पित किया जाता है, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता हैं।

वक्रोक्ति के मुख्यतः दो भेद हैं –

(i) श्लेष वक्रोक्ति – जब श्रोता ‘श्लेष’ के द्वारा शब्द विशेष का अन्य अर्थ ग्रहण करता है –

कौ तुमी ‘हरि’ मैं राधे!

क्या वानर का काम यहाँ॥

यहाँ हरि का अर्थ कृष्ण न लेकर राधा द्वारा ‘बन्दर’ लिया गया है।

हरि! अम्बर देहु हमें कर में,

गहिये किन जो कर में नभ आवै।

यहाँ अम्बर का अर्थ वस्त्र न लेकर नभ (आकाश) लिया गया।

(ii) काकु वक्रोक्ति – जब वक्ता किसी शब्द का उच्चारण इस प्रकार करे कि उसकी कण्ठध्वनि से उसका अन्य अर्थ अभिव्यक्त होता है, वहाँ काकुवक्रोक्ति अलंकार होता है, जैसे –

मैं सुकुमार नाथ बन जोग । तुमहिं उचित तप मोकहै भोगू॥

सीता द्वारा राम के साथ्ज्ञ वन जाने का आग्रह करने पर राम सीता से कहते हैं कि तुम राजकुमारी हो वन के कष्ट सहन नहीं कर सकोगी तब सीता काकुवक्रोक्ति में राम से उक्त कथन कहती है।

आये हूँ मधुमास के, प्रीतम ऐहैं नाहिं

यहाँ सखी कहती है कि जब मधुमास (बसन्त ऋतु) आ गया है तो भला प्रीतम (प्रिय) कैसे नहीं आयेंगे। अर्थात् अवश्य आयेंगे।

2 . अर्थालंकार (Arthalankar) –

परिभाषा : – जब काव्य का सौन्दय ‘शब्द’ में न होकर अर्थ में होता है, अर्थात् वाक्य में प्रयुक्त अर्थ के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है वहाँ अर्थालंकार होता है।

उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिश्योक्ति, सन्देह, भ्रान्तिमान, दृष्टान्त, उदाहरण, विभावना, असंगति, विरोधाभास, अन्योक्ति, प्रतीप अर्थान्तरन्यास, अपहृति, विशेषोक्ति, अनन्वय, सानवीकरण आदि प्रमुख अर्थालंकार हैं।

(1) उपमा (Upma) –

रूप रंग गुन काहू को, काहू के अनुसार।

ता को उपमा कहते हैं जे सुबुद्धि आगार ॥

काव्य में जब उपमेय और उपमान के रूप, रंग, गुण, क्रिया या स्वभाव में समानता बतलाई जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है।

उपमा के चार अंग होते हैं – 1 . उपमेय, 2 . उपमान, 3 . साधारण धर्म, 4 . वाचक शब्द ।

काव्य में जो वर्ण्य विषय होता है उसे उपमेय तथा जिस व्यक्ति या वस्तु के साथ उपमेय की समानता बतलाई जाती है, उसे उपमान तथा वह गुण या विशेषता जिसकी समानता बतलाई जाती है

उसे साधारण धर्म या समान धर्म एवं जिन शब्दों के द्वारा उपमेय और उपमान को समान धर्म के साथ जोड़ा जाता है, अर्थात् समानता बतलाने वाले सादृश्यमूलक शब्दों को वाचक शब्द कहते हैं।

ज्यों, जिमि, सरिस, सम, जैसे, सो, सी आदि शब्द वाचक शब्द हैं।

पीपर पात सरिस मन डोला

उपमान वाचक शब्द उपमेय साधारण धर्म

उपमान अलंकार के मुख्यतः निम्न भेद हैं –

(i) पूर्णोपमा – जिस उपमा में उपमा अलंकार के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, समान धर्म तथा वाचक शब्द) का समावेश होता है, उसे पूर्णोपमा अलंकार कहते हैं, जैसे –

सागर सा गंभीर हृदय हो

उपमान वाचक शब्द समान धर्म उपमेय

सुन्दर बदन सुधारक जैसा

मुख मयंक सम मंजु मनोहर

(ii) लुप्तोपमा – जिस उपमा में उपमा अलंकार के चारों अंगों में किसी एक या एक से अधिक अंगों का उल्लेख न हो उसे लुप्तोपमा कहते हैं।

कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा

उपमान वाचक शब्द उपमेय (धर्म लुप्तोपमा)

कुलिस कठोर सुनत कटु बानी।

उपमान समान धर्म उपमेय (वाचक लुप्तोपमा)

(iii) मालोपमा – जिस उपमा में एक उमेय के लिए एक से अधिक उपमान प्रयुक्त हों, वहाँ मालोपमा होती है –

कान्ह जिमि कंस पर, तेज तम अंस पर

तिमि अरि वंस पर, सेर सिवराज है।

(2) रूपक (Rupak) –

उपमेयरू उपमान जब एक रूप है जाहिं।

काव्य में जब उपमेय में उपमान का निषेध रहित अर्थात्अ भेद आरोप किया जाता है, तब वहाँ रूपक अलंकार होता है।

रूपक के मुख्यतः तीन भेद हैं –

(i) सांगरूपक या सावयव रूपक – जिस रूपक में उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, उसे सांगरूपक कहते हैं।

उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बाल पतंग।

बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन भंग।

यहाँ रघुवर (राम), मंच, संत तथा लोचन उपमेयों पर क्रमशः बाल पतंग (सूर्य), उदयगिरि, सरोज तथा भंग (भौंरे) उपमानों का आरोप किया गया है।

(ii) निरंगरूपक – जिस रूपक में उपमान का उपमेय में केवल एक बार ही आरोप हो, उसके अंगों का नहीं वहाँ निरंग रूपक अलंकार होता है।

चरण-कमल, बंदौ हरिराई।

चरण-सरोज पखारन लागा।

(iii) परम्परित रूपक – काव्य में जब उपमेय पर उपमान का एक आरोप दूसरे उपमान का कारण बनता चलता है, वहाँ परम्परित रूपक होता है।

राम-कथा कलि-पन्नग भरनी

यहाँ कलयुग एवं पन्नग में तथा रामकथा और भरनी (मोरनी) में एकरूपता स्थिर की गई है।

(3) उत्प्रेक्षा (Utpreksha) –

जहाँ कीजै संभावना, सो उत्प्रेक्षा जानि।

काव्य में जब उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है तथा संभावना हेतु जनु, मनु, जनहु, मनहु, मानो, मानो आदि में से किसी वाचक शब्द का प्रयोग किया जाता है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है –

उत्प्रेक्षा के मुख्यतः तीन भेद हैं –

उत्प्रेक्षा संभावनाः वस्तु, हेतु, फललेखि।

(i) वस्तूत्प्रेक्षा – काव्य में जब एक वस्तु में दूसरी वस्तु की संभावना की जाती है –

लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ ।

निकसे जनु जुग विमल विधु, जलद, पटल विलगाई ॥

(ii) हेतूत्प्रेक्षा – काव्य में जब अहेतु में हेतु की संभावना की जाती है अर्थात् जो हेतु नहीं है फिर भी उसे हेतु मान लिया जाता है।

मोर मुकुट की चन्द्रकनि, यों राजत नन्दनन्द।

मनु ससि सेखर को अकस, किये सेखर सतचन्द॥

(iii) फलोत्प्रेक्षा – काव्य में जब अफल में फल की संभावना की जाती है, अर्थात् जो फल नहीं होता, फिर भी उसे फल मान लिया जाता है –

तरनि-तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

झूकें कूल सों जल परसन हिल मनहुँ सुहाये ॥

(4) अतिशयोक्ति (Atishyokti) –

काव्य में जब किसी व्यक्ति, बात या वस्तु का इतना बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया जाये कि वह सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन जान पड़े, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

पत्राहिं तिथि पाइये, वा घर के चहुँपास।

नित प्रति पून्योहि रहत, आनन ओप उजास।

नायिका के मुख के प्रकाश से मोहल्ले में सदैव पूर्णिमा की चाँदनी बनी रहती है इसलिए तिथियों के ज्ञान हेतु लोग पंचांग देखते हैं।

(5) सन्देह (Sandeh) –

काव्य में जहाँ एक वस्तु (उपमेय) के सम्बन्ध में एक से अधिक वस्तुओं (उपमानों) के होने का सन्देह बना रहता है किन्तु निश्चय किसी का भी नहीं होता वहाँ सन्देह अलंकार होता है। सन्देह हेतु काव्य में कि, किंव, धौं, क्या, किधौं, या, अथवा आदि में से किसी वाचक शब्द का प्रयोग होता है।

ये हैं सरस ओस की बूंदें, या हैं मंजुल मोती ?

बालों से मोती झरते हैं या मेघों से पानी।

सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है,

सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।

(6) भ्रान्तिमान (Bhrantiman) –

काव्य में जब उपमेय तथा उपमान के गुण, धर्म आदि में अत्यधिक सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान की भ्रान्ति हो जाती है अर्थात् एक वस्तु को अन्य वस्तु समझने में निश्चय हो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है।

ओस बिन्दु चुग रही हंसिनी, मोती उनको जान।

जानि स्याम को स्याम-घन, नाचि उठे बन मोर।

(7) दृष्टान्त (Drishtant) –

काव्य में जहाँ उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य के साधारण धर्म में बिम्ब-प्रतिबिम्ब का भाव हो तथा किसी भी वाचक शब्द का उल्लेख न हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है –

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।

रसरी आवत जात ते, सिल पर होत निसान ।।

धनी गेह में श्री जाती है, कभी न जाती निर्धन घर में।

सागर में गंगा गिरती है, कभी न गिरती सूखे सर में ।

(8) उदाहरण (Udaharn) –

काव्य में जब प्रथम पंक्ति में एक बार कहकर, दूसरी पंक्ति में उसके उदाहरण के रूप में एक दूसरी बात कही जाती है तथा दोनों बातों को जैसे, ज्यों, जिमि आदि में से किसी वाचक शब्द के द्वारा समानता बतलाई जाती है, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है –

उदित कुमुदिनी नाथ हुए प्राची में ऐसे।

सुधा-कलश रत्नाकर से,उठता हो जैसे॥

सिमिट-सिमिट जल भरहि तलाबा।

जिमि सद्गुण सज्जन पहु आबा ॥

(9) विभावना (Vibhavna) –

काव्य में जहाँ करण के न होने पर भी कार्य का होना पाया जाता है, वहाँ विभावना अलंकार होता है।

बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।

कर बिनु कर्म करै विधि नाना ॥

नाचि अचानक ही उठे बिनु पावस बन मोर।

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटि छवाय।

बिनु पानी- साबुन बिना, निरमल हेय सुभाय ॥

(10) असंगति (Asangati) –

काव्य में जब कारण कहीं और तथा कार्य कहीं और होना वर्णित हो, वहाँ असंगति अलंकार होता है –

हृदय घाव मेरे, पीर रघुबीरे।

दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति ।

परति गौठि दुरजन हिय, दई नई यह रीति ॥

(11) विरोधाभास (Virodhabhas) –

जब काव्य में वर्णित दो कथनों में वस्तुतः विरोध नहीं होने पर भी उनमें विरोध का आभास होता है। अर्थात् विरोध केवल शब्दाश्रित होता है अर्थाश्रित नहीं वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है –

या अनुरागी चित्त की, गति समझे नहिं कोय।

ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होय ॥

तन्त्रीनाद, कवित्त रस, सरस राग रति रंग।

अनबूड़े, बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग ॥

(12) अन्योक्ति (Anyokti) –

काव्य में जब अप्रस्तुत अर्थ के माध्यम से प्रस्तुत अर्थ का बोध कराया जाता है। अर्थात् जो कुछ कहना होता है, उसे स्पष्ट न कहकर किसी अन्य को सम्बोधित करके कहा जाता है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है –

माली आवत देखिकर, कलियन करी पुकार।

फूले-फूले चुनिलिए, काल्हि हमारी बार ॥

नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं विकासु इहिकाल ।

अलि कली ही सों बन्ध्यो, आगे कौन हवाल ।।

(13) प्रतीप (Pratip) –

काव्य में जब किसी लोकं प्रसिद्ध ‘उपमान’ को ‘उपमेय’ तथा उपमेय को उपमान बना दिया जाता है या जब किसी स्वाभाविक उपमान की अपेक्षा उपमेय की श्रेष्ठता व्यंजित करते हुए उपमेय की तुलना में उपमान को व्यर्थ, तुच्छ या हीन बतलाते हुए उसका तिरस्कार कर दिया जाता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।

मुख के सदृश चन्द्र सुशोभित, कमल नेत्र सम लगता है।

सिय मुख समता पाव किमी चन्द बापरो रंक।

सीय बदम सम हिमकर नाहीं।

(14) अर्थान्तरन्यास (Arthantrnyas) –

काव्य में जहाँ सामान्य कथन का विशेष कथन द्वारा या विशेष कथन का सामान्य कथन द्वारा समर्थन किया जाता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।

सामान्य कथन का विशेष कथन द्वारा समर्थन –

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम अफसोस।

महिमा घटी समुद्र की, रावण बसे पड़ो॥

विशेष का सामान्य कथन से समर्थन –

कृष्ण ने बचाया ब्रज, इन्द्र के प्रकोप से था।

करते महान् जन, काम कौन से नहीं।

(15) अपह्नति (Aphwati) –

काव्य में जहाँ उपमेय (प्रस्तुत) का निषेध कर उपमान (अप्रस्तुत) की स्थापना की जाती है तथा निषेध हेतु न, नहिं, मिस आदि में से किसी वाचक शब्द का प्रयोग होता है, वहाँ अपहनुति अलंकार होता है।

नहिं सुधांशु यह है सखी, नभ गंगा को कंज।

(16) विशेषोक्ति (Vishoshokti) –

काव्य में जहाँ कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य सम्पन्न न हो. वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।

सखी, दो दो मेघ बरसते, मैं प्यासी की प्यासी।

पानी बिच मीन पियासी, मोहि सुनि सुनि आवै हांसी

(17) अनन्वय (Annvay) –

काव्य में जब उपमेय के लिए कोई दूसरा उपमान न होकर, उपमेय स्वयं ही अपना उपमान हो, वहाँ अनन्वय अलंकार होता है –

भारत के सम भारत है।

तुलसी कवि तुलसी सदृश, सूर-सूर सम जान।

केशव केशव तुल्य है, ये सब आप समान ॥

(18) मानवीकरण (Manvikrn) –

काव्य में जब मानवेतर जड़ प्रकृति के पदार्थों में मानवीय गुणों का आरोप करके उन्हें मानव के समान सजीव चित्रित किया जाता है या अचेतन वस्तुओं या अमूर्त भावों को चेतन और मूर्त रूप दिया जाता है, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती सबके सोने पर।

रवि बटोर लेता है, उनको सदा सवेरा होने पर।

मृत्यु अरि चिर निद्रे ! तेरा अंक हिमानी सा शीतल ।

(19) समासोक्ति (Samasokti) –

प्रस्तुताद प्रस्तुत प्रतीतिः समासोक्ति : – विश्वनाथ

काव्य में जब प्रस्तुत अर्थ से अप्रस्तुत अर्थ का बोध होता है, वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है अर्थात् जहाँ प्रस्तुत वर्णन में अप्रस्तुत की प्रतीति हो, वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ की प्रधानता हो।

अप्रस्तुत अर्थ -सन्ध्या के समय कलाओं के निधि (प्रियतम) को देखकर नायिका प्रसन्न हुई।

सहज सुगन्ध मदन्ध अलि करत चहूँ दिसि गान।

देखि उदित रवि कमलिनी, लगी मुदित मुसकान॥

यहाँ भी प्रस्तुत कमलिनी वर्णन में अप्रस्तुत नायिका के व्यवहार की प्रतीति हुई है।

(20) व्यतिरेक (Vytirek) –

व्यतिरेक जु उपमान ते उपमेयाधिक देखि।

काव्य में जब सकारण उपमेय को उपमान से किसी बात में श्रेष्ठ बताया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।

व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग कहीं उपमा के साथ तो कहीं रूपक के साथ तथा कहीं प्रतीत के साथ भी प्रयुक्त होता है।

जन्मसिन्धु पुनि बंधु विष, दिन मलीन, सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि, चन्द बापुरो रंक॥

विशेष – प्रतीप तथा व्यतिरेक दोनों मेंउपमेय की श्रेष्ठता तथा उपमान की हीनता वर्णित की जाती है। प्रतीप में यह वर्णन बिना किसी हेतु के होता है जबकि व्यतिरेक में इसका कोई हेतु अवश्य होता है।

हिंदी व्याकरण – Hindi Grammar

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