भाव पल्लवान या वृद्धीकरण का अर्थ होता है – “किसी भाव का विस्तार करना।” इसमें अभ्यर्थी को दी गई सूक्ति, कहावत, लोकोक्ति, है काव्य सूक्ति, कविता की पंक्ति या गद्य सूक्ति के आशय को विस्तार के से प्रस्तुत करना होता है।
किसी सूक्ति या पंक्ति में भाव तथा विचार ‘गागर में सागर’ के समान गठे हुए होते हैं इसलिए अभ्यर्थी को भाव पल्लवन में गागर में भरे उस सागर को निकाल कर इस प्रकार प्रवाहित करना होता है कि पाठक को यह ज्ञात हो सके कि उस सागर का असली रूप क्या है?
उसमें कौन कौन से भाव रूपी रत्न छिपे हुए हैं। अर्थात सूक्ति में निहित भाव या विचार को इस प्रकार उद्घाटित करें कि उसका अर्थ, आशय, मन्तव्य या सन्देश पूरी तरह स्पष्ट हो जाए।
भाव विस्तार एवं व्याख्या में अन्तर होता है, व्याख्या में प्रसंग एवं संदर्भ का उल्लेख होता है। सूक्ति पर टीका टिप्पणी, समीक्षा, आलोचना करने की छूट होती है किन्तु भाव पल्लवन में उसी भाव एवं विचार के पक्ष में तर्क देकर उसकी प्रामाणिकता को सिद्ध करना होता है, आलोचना नहीं।
अतः भाव विस्तार या पल्लवन करने के पूर्व सर्वप्रथम दी गई सूक्ति को समझने का प्रयत्न करें। उसके शाब्दिक अर्थ के साथ अन्य अर्थ यानि आशय को समझकर तत्संबंधी अन्य विचार बिन्दुओं को इकट्ठा करें। मूलभाव की पुष्टि हेतु उदाहरणों को क्रमानुसार लिखने हेतु कच्ची रूपरेखा बना लें।
भाव विस्तार 150 शब्दों तक देना होता है अत: भाव विस्तार में उक्ति का शाब्दिक अर्थ, अन्य अर्थ अर्थात् आशय तथा उदाहरणों द्वारा पुष्टि का उल्लेख होना चाहिए। इनका क्रम अपनी अभिव्यक्ति की सुविधा या अपनी शैली के अनुसार हो सकता है।
हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में तत्संबंधी सूक्ति या कविता की पंक्ति याद हो तो उसका उल्लेख अवश्य करना चाहिए किन्तु साथ ही में उसका आशय हिन्दी में भी स्पष्ट करना चाहिए।
भाव पल्लवन की भाषा सरल, सुबोध एवं स्पष्ट हो। सदैव अन्य पुरुष शैली का प्रयोग किया जाये । स्पष्टीकरण समास शैली की अपेक्षा व्यास शैली में हो।
जहाँ तक संभव हो वाक्य छोटे छोटे हों आलंकारिक भाषा से बचा जाए। मूलभाव से असंबंधित किसी प्रसंग का उल्लेख न हो ।
सूक्ति के प्रसंग एवं संदर्भ का उल्लेख न करें और नहीं उसके अनौर्चित्य का उल्लेख करें । आपको तो उस के औचित्य के पक्ष में अपने तर्क देने हैं।
1 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
1 . अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम
भाग्यवादियों की मान्यता है कि ईश्वर ही सब का रक्षक है। उसे सबकी चिन्ता है। वह कीड़ी (चींटी) के लिए कण तथा हाथी के लिए मण की व्यवस्था करता है।
जिस ईश्वर ने चोंच दी है वही उन सब के लिए चुगे की भी व्यवस्था करता है। इसलिए किसी को जीविका निर्वाह हेतु किसी प्रकार की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।
सचमुच में ईश्वर कितना दयालु है, वह अनुग्रही है; उसने सर्पो के लिए पवन को आहार हेतु निर्मित किया तो पशुओं के लिए घास की व्यवस्था की, जिनके आधार पर वे जीवित रह सकते हैं, जबकि बुद्धि सम्पन्न मनुष्य को ईश्वर पर विश्वास नहीं वह संसार सागर को पार करने के लिए जीविका निर्वाह हेतु जीवन भर इधर उधर भटकता रहता है।
वास्तविकता यह है कि ईश्वर को सब की चिन्ता है, कोई उद्यम करे या न करे, ईश्वर सब के भरण-पोषण की व्यवस्था करता है। बच्चा पैदा करने से पूर्व वह माँ के स्तन में दूध की व्यवस्था कर देता है। ईश्वर की इसी प्रवृत्ति के कारण अजगर भी यही कहता है –
अजगर पूछे बिजगरा, कहा करत हो मित।
पड्या रह्या हाँ धूल में, हरि करत है चिंत।।
सच ही है, अजगर अपनी जीविका निर्वाह हेतु किसी की नौकरी नहीं करते, वहीं पक्षी भी अपने भरण पोषण हेतु किसी के यहाँ मजदूरी नहीं करते, फिर भी प्रतिदिन ईश्वर उनके लिए भोजन की व्यवस्था करता है। इसी को देख भाग्यवादी संत कवि मलूक दास ने ठीक ही कहा कि –
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबसे दाता राम।।
2 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
2 . अतिशय रगड़ करै जो कोई, अनल प्रगट चंदन ते होई।
चन्दन शीतलता प्रदान करने वाला पदार्थ है परन्तु यदि उसे भी लगातार कोई रगड़े तो उससे भी ऊष्मा पैदा हो जाती है। अर्थात शान्त प्रकृति के व्यक्ति को भी लगातार तंग करने, कोसने या परेशान करने पर उसे भी क्रोध आ सकता है।
वास्तव में अति तो अच्छे या बुरे किसी भी क्षेत्र के लिए हानिकारक ही होती है। संस्कृत में भी कहा है –
अति रूपेण वरणं सीता अतिगर्वेण रावण।
अति दानात् बलिवों, अति सर्वत्र वर्जयेत।।
अर्थात् अति सर्वत्र वर्जित है।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने भी मानव जीवन में अतियों की उपेक्षा कर मध्यम मार्ग अपनाने की प्रेरणा होते हुए यही कहा कि वीणा के तारों को इतना मत खींचो कि वे टूट जायं और इतना ढीला भी मत करो कि उनसे स्वर भी न निकले।
अंग्रेजी में भी तत्सम्बन्धी कहावत है कि Excess in every thing is bad. अर्थात् अति तो किसी भी चीज की हानिकारक होती है।
अतः मानव को अपने जीवन में अतिवादों को छोड़कर मध्यम मार्ग का ही आश्रय लेना चाहिए। कवि पंत के शब्दों में अविरत् दु:ख है उत्पीड़न अविरत सुख भी उत्पीड़न, जग पीड़ित है अति दुख से, जग पीड़ित है अति सुख से।”
अतः यह सत्य है कि किसी निर्जन में निराहार रह कर किया जाने वाला तप हो या आठ पहर चौसठ घड़ी का भोग विलास, दोनों ही त्याज्य है कहीं कहीं तो अत्यधिक गुणों के कारण भी कष्ट उठाने पड़ते हैं यथा –
कहूँ कहूँ गुनते अधिक, उपजत दोष शरीर।
मीठी बोली बोली कै, परत पींजरा कीर।।
3 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
3 . अब पछिताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत
कोई व्यक्ति किसी कार्य को समय पर नहीं करेगा तो उसे असफलता ही हाथ लगेगी, क्योंकि समय की समाप्ति पर तो कुछ नहीं होने का, केवल पछतावा ही रह जाता है।
अतः जब खेत हरा भरा था, दाने पक रहे थे, तब पक्षियों ने आकर दाना चुगलिया, किन्तु तब तो खेत की रक्षा नहीं की। बाद में फसल के अभाव में आठ आठ आँसू बहाने से क्या लाभ?
अतः समय पर समय के मूल्य को पहचानना ही समय का सदुपयोग है क्योंकि गया हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता है तुलसीदास जी ने भी यही कहा कि ‘समय चूकि पुनि का पछिताने।’
वास्तव में समस बड़ा ही मूल्यवान होता है, इसलिए व्यक्ति को हर आहट के लिए सतर्क रहना चाहिए तथा उसका उचित लाभ प्राप्त करना चाहिए। ठीक ही कहा गया है –
समझदार सुजाण, नर अवसर चूकै नहीं।
अवसर रो औसाण, रहे घणा दिन राजिया।
समय का रथ जब द्वार पर आकर खड़ा होता है, दस्तक देता है तब तो गहरी नींद में बेसुध पड़े रहकर अवसर को गंवा दे, फिर अवसर हाथ से निकल जाने पर तो पश्चाताप की आग में ही जलना ही पड़ेगा, पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलने का।
निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक संत कबीर ने भी कहा कि जब काल रूपी चिड़िया जीवन के स्वर्णिम क्षण रूपी कणों को चुगती रही, तब तो जीवन की रक्षा का कोई उपाय नहीं किया, किन्तु जब चलने का (मृत्यु का) समय आया तो पश्चाताप के आँसू भी बहाये तो क्या लाभ ? ठीक ही कहा है –
आछे दिन पाछे गये, हरि सो कियो न हेत।
अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।।
4 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
4 . असफलता सफलता की सीढ़ी है।
जब कोई घुड़सवार घोड़े से गिर पड़ता है तो वह तुरन्त उठकर अपने कपड़ों को झाड़कर शरीरांगों को सहलाकर दुबारा घोडे पर बैठ जाता है तो निकट भविष्य में उसे घुड़सवारी करना आ जायेगा।
किन्तु जो गिर कर बैठा रहेगा वह भला घुड़सवारी कैसे सीख पायेगा। अतः दोष घोड़े से गिरने में नहीं बल्कि गिरकर न उठने में है। इसीलिए तो असफलता को सफलता की प्ररेणा तथा निराशा को आशा की जननी माना गया है।
वास्तव में असफलता ही तो सफलता की कुंजी है, विफलता से व्यक्ति को कुछ सीखने को मिलता है। क्योंकि विफलता ही तो व्यक्ति को यह बताती है कि उससे क्या गलती हो गई, जिससे वह असफल रहा, अतः अब उसमें उचित सुधार करो ताकि भविष्य में सफल हो सको।
लोग कठिनाइयों से घबराकर चुनौतियों का सामना करने की अपेक्षा उनके आगे घुटने टेक देते हैं, किन्तु जीवन में बाधाओं से घबराने का नाम जिन्दगी नहीं होता, जिन्दगी का वास्तविक अर्थ होता है चुनौती।
वास्तव में असफलता का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि सफलता के अभाव का नाम ही तो असफलता है। वैसे सफलता भी कोई चाबी से चलने वाला खिलौना नहीं है, और न किसी पेड़ पर लगने वाला फल ही, जिसे पत्थर मार कर या ऊँचे चढ़कर चाहे जब प्राप्त किया जा सकता है,
बल्कि सफलता तो पूरी तैयारी के साथ योजना बद्ध ढंग से श्रमपूर्वक कार्य करने पर प्राप्त होती है किन्तु असफलता इसी बीच व्यक्ति को विनम्र अनुभवी तथा धैर्यवान बनाकर भविष्य में दूने उत्साह से आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। इसलिए असफलता को सफलता की सीढ़ी कहना उचित ही प्रतीत होता है। ठीक ही कहा है –
असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो।
क्या कभी रह गई देखो ओर सुधार करो।।
5 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
5 . आँख में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों।
आदर्श स्थिति की प्राप्ति व्यक्ति का लक्ष्य अवश्य हो किन्तु व्यक्ति को जीवन की यथार्थता को नहीं भूलना चाहिए। यद्यपि कल्पना एक सृजनात्मक दृष्टि है किन्तु कोरी कल्पना का जीवन में कोई महत्व नहीं।
व्यक्ति को जीवन में प्रगति के शिखर पर पहुँचने के लिए, जीवन में सफलता के सोपानों पर चढ़ने के लिए उन्नति की ओर अग्रसर होने के लिए महत्वांकाक्षी अवश्य होना चाहिए किन्तु इतना भी महत्वाकांक्षी न बन जाए कि यथार्थ की ही उपेक्षा कर बैठे।
यह सच है कि मानव को लक्ष्य निर्धारण में कल्पनाशीलता अर्थात् स्वप्नशीलता की अपेक्षा रहती है वहीं यथार्थपरकता का उससे भी ज्यादा महत्त्व होता है क्योंकि यथार्थ विहीन कल्पना कालबूत के कोट की तरह ढह जाने वाली है। केवल आकाश की ओर देखने वाले व्यक्ति के धरती से पैर उखड़ सकते हैं और वह ठोकर खाकर गिर भी सकता है।
अत: व्यक्ति को अपने व्यावहारिक पक्ष को समझ कर अपनी आकांक्षाओं को लचीला बनाना चाहिए। केवल हवाई किले बनाने, मन के लड्डू खाने या ख्याली पुलाव पकाने से कुछ नहीं – होने का।
राजस्थानी के मूर्धन्य कवि कन्हैयालाल सेठिया नहीं यही बातयों कही है “बटाऊचाल्यां मंझलां मिलसी, मनरा लाडू खार कदैई सुन्यौ न कोई धाप्यो।” अर्थात कार्य की पूर्ति कहने से नहीं करने से होती है।
वास्तव में इतिहास का रथ वह हाँकता है, जो सोचता है, और सोचे को करता भी है। कल्पना का पाथेय लेकर ही मानव अपने गन्तव्य पर पहुँचता है किन्तु कोरी कल्पना का कोई महत्व नहीं।
क्योंकि कल्पना कर्म के साथ जुड़कर ही सार्थक होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में सफलता हेतु अपने ध्येय और जगत की वस्तुस्थिति में सामंजस्य कर के ही चलना चाहिए, यही जीवन का सत्य है।
6 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
6 . करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान
निरन्तर अभ्यास ही ज्ञानार्जन का मूलमंत्र हैं। अल्पबुद्धिजन भी निरन्तर अर्थात् बार-बार अभ्यास करे तो विद्वान ही नहीं महाविद्वान बन सकते हैं, और बने भी हैं।
जैसे घिसते घिसते, लुढ़कते लुढ़कते बेडोल पत्थर भी शिवलिंग-सा गोल एवं चिकना हो जाता है, उसी प्रकार निरन्तर कार्य एवं अभ्यास से व्यक्ति में समस्याओं से जूझने की जो शक्ति प्राप्त होती है, अनुभव प्राप्त होता है, उससे वह अन्ततः अपने कार्य में कुशलता एवं सफलता प्राप्त कर ही लेता है।
वीर अर्जुन को गुरुद्रोण ने शिक्षण देकर महान धनुर्धर बनाया था परन्तु निरन्तर अभ्यास एवं लग्न से एकलव्य महान धनुर्धर बना था, अभ्यास ही तो उसका गुरु था।
मूर्ख वरदराज भी निरन्तर अभ्यास के बलबूते पर महान विद्वान बन लघुसिद्धान्त कौमुदी’ और ‘युगबोध’ जैसे ग्रंथों का प्रणेता बना।
भर्तृहरि के शब्दों में यदि व्यक्ति अभ्यास करें तो मगरमच्छ की ढाढ़ में फँसी मरकतमणि को हाथ देकर निकाल सकता है, तपते रेगिस्तान में खरगोश के सींग ढूँढ़ सकता है, यहाँ तक बालू रेत को पेल कर तेल भी निकाल सकता है। अतः कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो अभ्यास करने पर भी दुष्प्राप्य हो।
अंग्रेजी में भी तत्संबंधी कहावत है कि ” Practice makes a man perfect “.
संत कविवृन्द ने कहा कि अज्ञानी व्यक्ति भी अभ्यास से ज्ञानी बन सकता, निरन्तर परिश्रम करके जड़ या असमर्थ व्यक्ति भी रगड़ से कठोर पत्थर से बनी कुएँ की मुंडेर पर निशान बन सकता है। यथा –
करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।।
7 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
7 . कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
विश्व में कर्म की ही प्रधानता है, कर्म के कारण ही विश्व का अस्तित्व बना हुआ है। कर्म ही मानव जीवन का व्यवस्थापक तत्व है। कर्म से अलग विश्व की स्थिति संभव ही नहीं है। यहाँ तक कि सृष्टि स्वयं कर्ममय है।
मानव जीवन में जन्म से मृत्यु तक के समस्त कार्य संभार, व्यावहारिक क्रिया कलाप, शारीरिक स्पन्दन, बौद्धिक चिन्तन सभी कर्म की अवस्थाएँ ही तो हैं महाभारत में कहा गया है कि जिस तरह बिना जोते हुए खेत में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है, उसी तरह पुरुषार्थ के बिना प्रारब्ध को भी सिद्धि नहीं मिलती।
यही बात ‘कुरूक्षेत्र’ में कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने यों कही है –
प्रकृति नहीं डर कर झुकती है, कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से।
वास्तव में मानव की सफलता का श्रेय उसका श्रम ही है भाग्य नहीं। एक शायर के शब्दों में –
“मंत कर गुरूर, अपने हाथों की लकीरों पर। सफलता परिश्रम की दासी होती है, वह सदैव परिश्रमी के ही चरण चूमती है। परिश्रम ही वह काम धेनु है जिससे मानव की सब इच्छाएँ पूर्ण होती है। आज संसार में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह मनुष्य के परिश्रम का ही फल है।”
‘श्रमेण बिना न किमपि साध्यं’ संस्कृत की इस सूक्ति का यही अर्थ है कि संसार में श्रम से ही सब कुछ मिलता है, श्रम के बिना कुछ भी नहीं मिलने का।
अथर्ववेद में भी इसी से संबंधित स्पष्ट उल्लेख है कि मेरे दायें हाथ में कर्म है.तो बायें हाथ में जय। अतः कर्मनिष्ठ व्यक्ति, पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में सुखों का भोग करता है, प्रतिष्ठा प्राप्त करता है जबकि कर्म से विरत रहने वाला व्यक्ति सदैव हीनत्व भाव से ग्रसित, उपेक्षा एवं आत्मग्लानि का जीवन भोगता है।
अतः तुलसी की यह सूक्ति शत प्रतिशत सही चरितार्थ है कि ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा।’
8 . पल्लवन (Pallawan in Hindi Grammar)
8 . का वर्षा जल कृषि सूखाने समय चूकि पुनि का पछिताने
वर्षा के अभाव में फसल के सूख जाने पर अमृत जल देने के वाली कितनी हो वर्षा क्यों न हो, वह फसल पुनः हरी भरी नहीं हो सकती।
अर्थात् समय बीत जाने पर किसी वस्तु की प्राप्ति कोई अर्थ नहीं रखती। यही स्थिति मानव जीवन में प्राप्त होने वाले अवसरों के विषय में भी कही जा सकती है।
वास्तव में हर प्रयत्न का अपना निश्चित समय होता है। यदि कोई व्यक्ति उचित समय पर आवश्यक प्रयत्न करने से चूक जाए, फिर लाख प्रयत्न क्यों न करे, उसका बिगड़ा कार्य पुनः नहीं सुधरने का। तत्सम्बन्धी राजस्थानी में कहावत में है कि
बाजरियाँ बलियाँ पछै, मेहा कीनी भोग।
तेली सूंखल उतरी, हुई बलीते जोग।।
अतः समय के महत्व को स्वीकारते हुए व्यक्ति को उचित समय पर ही किसी कार्य को सम्पन्न कर लेना चाहिए क्योंकि समय की समाप्ति पर तो कुछ नहीं होने का केवल पछतावा ही रह जाता है। इसलिए समय के मूल्य को पहचानना ही समय का सही सदुपयोग है। रहीम ने अपने निम्न दोहे में इसी कथन की पुष्टि में कहा है –
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
वास्तव में किसी सहायता, सहयोग या उद्यम की उपयोगिता तभी सार्थक है, जब वह आवश्यकता के समय उपलब्ध करायी जाय। मरीज की मृत्यु होने के बाद यदि डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध हो तो भला उससे क्या लाभ ? कविवर वृन्द ने इसी विचार की पुष्टि इस प्रकार की है –
दीवो अवसर को भालो, जासो सुधरै काम।
खेती सूखे बरसिबो, घन को कौने काम।।
*** हिंदी व्याकरण – Hindi Grammar ***